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चारित्र
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उसीकी प्राप्तिके उपायोंमे लगे रहते है, तथा न्याय और अन्यायक विचार नही करते । इसीसे ससारमें दुख है । हमारी अर्थ और कामक अनियत्रित वाञ्छा ही स्वयं हमारे और दूसरोके दुखका कारण बर्न हुई है । यदि हम उसे धर्मके अंकुशसे नियंत्रित कर सके धर्म अविस् अर्थ और कामके सेवन करनेका व्रत लेलें तो हम स्वयं भी सुखी हो सकत हैं और दूसरे भी, जो कि हमारी अनियत्रित अर्थतृष्णा और कामतृष्णा के शिकार बने हुए है, सुखी हो सकते है । इसीलिये धर्म उपादेय है वह हमारी इच्छाओका नियमन करक हमे सुखी ही नही, किन्तु सुखी बनाता है, क्योकि जो सुख हमे इन्द्रियोके द्वारा प्राप्त होता है वह पराधीन है। जब तक हमे भोगनेके लिये रुचिकर पदार्थ नहीं मिलते तब तक वह होता ही नही, तथा उनके भोगने पर तत्काल सुख मालूम होता है किन्तु बादमे जब भोगकर छोड देते है तो पुन उनके बिना विकलता होने लगती है । जैसे, भूख लगनेपर रुचिक भोजन मिलने से सुख होता है, न मिलनेसे दुख होता है। तथा ए बार भर पेट भोजन कर लेनेपर दूसरी बार फिर क्षुधा सताने लगत है और हम भोजनके लिये विकल हो उठते है । अत इस प्रकार प्राप्त होनेवाला सुख सुख नही है किन्तु दुख ही है। सच्चा सुख वह है जिसे एक बार प्राप्त कर लेनेपर फिर दुखका भय ही नहीं रहता । इसीसे कहा है- 'तत्सुखं यत्र नासुखम् ' । सुख वही है जिसमें दुख न हो । धर्मसे ऐसे ही स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है ।
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२. मुक्तिका मार्ग
'ससारमे दुःख क्यों है' यह हम जान चुके है। और यह भी जा चुके है कि सुखका साधन धर्म है वह हमें दु खोंसे छुड़ाकर सुख ही नही किन्तु उत्तम सुख प्राप्त करा सकता है । अब प्रश्न यह है कि दुखोसे छूटने और सुखको प्राप्त करनेका वह मार्ग कौनसा है, जो धर्मक नामसे पुकारा जाता है। आचार्य समन्तभद्र लिखते है
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