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जनवमं
" तृषा धुप्यत्यात्ये पिवति मल्लि स्वादु सुरभि घातं सन् घालीन् स्वचयति माकादिवलितान् । 1 प्रदीप्ते कामान्नो सुरमालिङ्गति वर्ष
प्रतीकारो व्याघे सुसमिति विषयस्यति जन ॥
अर्थात् - 'जव प्यासले मुख नखने लगता है तो मनुष्य सुगन्धित स्वादु जल पीता है। भूखसे पीति होनेपर नाक आदिके साथ भात खाता है । कामाग्निके प्रज्वलित होनेपर पत्नीका आलिंगन करना 1 इस प्रकार रोगके प्रतीकारोको मनुष्य भूलने सुस मान रहा है।'
साराग यह है कि बाह्य वस्तुओंके संग्रहका उद्देश्य केवल शरीर और मनके अन्दर उत्पन्न होनेवाली दुराजनित चंचलताको मिटाना मात्र है। सच्चा सुख तो अपने अन्दरने स्वत विकसित होता है, " वह वाह्य वस्तुकी अपेक्षा नही करता । उसके लिये नगर और वन, स्वजन और परजन, महल और श्ममान तथा प्रियाकी गोद और शिलातल सव समान है । अत न अर्थ सुख का सावन है और न काम, किन्तु
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इच्छाका निरोध ही सच्चे सुसका सावन है । जो इस सत्यको नहीं समझते वे इच्छाको न रोक कर इच्छाके अनुकूल पदार्थ प्राप्त करके सुखी होनेका प्रयत्न करते हैं, किन्तु एक इच्छाक पूरी होनेपर दूसरी , इच्छा उत्पन्न होती है और इस तरह इच्छाका स्रोत वहता रहता है। सव इच्छाएँ किसीकी पूरी नही होती, और यदि हो भी जाएँ तो लागे 'कोई इच्छा उत्पन्न न हो यह संभव नही है । अत. फिर इच्छा उत्पन्न होनेसे फिर दुखको ही सभावना है । अत. प्रत्येक प्रकारकी इच्छा नियमन करना ही सुखका सच्चा उपाय है, न कि उसके अनुकूल 'पदार्थ जुटाकर उसकी तृप्ति करना । तृप्ति करनेसे तो इच्छा वढती 'है और वह तृष्णाका रूप धारण कर लेती है ।
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निष्कर्ष यह है कि सब सुख चाहते है, किन्तु दु खोका अभाव हुए f विना सुखकी प्रतीति नही हो सकती । नर्थ और कामते जो सुख ' होता है वह सुख सुख नही है, किन्तु शारीरिक और मानसिक रोगोंका उ प्रतीकारमात्र है । भ्रमसे लोगोंने उसे सुख समझ लिया है और सव