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जैनधर्म
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रहें, वे सब सर्वज्ञ है । कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोका पूर्ण विकास नही होने देता। उसके दूर होनेपर प्रत्येक जीव अपनी अपनी स्वानाविक शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। मतलब यह है कि जीवोका कर्मनवन्वन तथा जीवोंका मर्यादित किन्तु हीनाविक ज्ञान इस बातको बतलाता है कि जीवोंकी मुक्ति तथा उनकी सर्वज्ञता असंभव वस्तु नही है उता जो जो सर्वज होता है वह कर्मबन्धनको काटकर ही सर्वज्ञ होता है। प्र उसके बिना कोई सर्वज्ञ हो नही सकता । इसलिये अनादि सिद्ध को नही है ।
हैं कर्मवन्वनका विशेष वर्णन आगे कर्मसिद्धान्तमें किया गया है चार घातिकर्मो का नाश करके यह जीव सर्वज्ञ हो जाता है । सर्वज्ञका दूसरा नाम केवली भी है। क्योकि उसका ज्ञान और दर्शन आत्मा सिवा किसी अन्य सहायककी अपेक्षा नहीं करता, अत. वह केवली कहा जाता है । उसे जीवन्मुक्त भी कहा जा सकता है, क्योंकि यद्यपि अभी वह सगरीर है, किन्तु धातिकर्मो के नष्ट हो जानेके कारण मुक्तात्मा ही समान है। वह चार घातियाकर्मोका नाश कर देता है है इसलिये उसे 'अरिहंत' भी कहते हैं। उसे हो 'जिन' कहते है, क्योंकि वह कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लेता है । ये केवली जिन दो प्रकारने होते है -- एक सामान्य केवली और दूसरे तीर्थङ्कर केवली । सामान्य केवली अपनी ही मुक्तिकी साधना करते है, किन्तु तीर्थङ्कर केवली
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'अपनी मुक्तिको तावनाके बाद ससारी जीवोंको भी मुक्तिका समस्य - दुःखों से छूटने का मार्ग बताते है। इनके उपदेशसे संसारके अनेक दर उतर जाते है इसलिये वे तीर्थ-स्त्वरूप गिने जाते हैं ।
जैसे ब्राह्मणवर्ममे रामचन्द्रजी आदिको नवताररूप माना जाता है या वोद्धष में बुद्धको मान्यता है वैसे ही जैनधर्ममें तीर्थंकरोंगे मान्यता है । किन्तु ये तीर्थङ्कर किसी परमात्माका अवताररूप नही
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होते, बल्कि संसारी जीवोंसे ही कोई जीव प्रयत्न करते-करते लोक
कल्याणकी भावनासे तीर्थंकुरपद प्राप्त करता है । जब कोई तीर्यहर
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'पद प्राप्त करनेवाला जीव माताके गर्भ में जाता है तब ती