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सिद्धान्त
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माताको सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते है। तीर्थड्रोके गर्भावतरण, जन्माभिपेक, जिनदीक्षा, केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति ये पञ्च महाकल्याणक होते है, जिनमे इन्द्रादिक भी सम्मिलित होते है। इन पञ्च महाकल्याणकरूप पूजाके कारण तीर्थङ्करको 'अहंत्" भी कहा जाता है।
तीर्थर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यके धारी होते है। ये साक्षात् भगवान् या ईश्वर होते है। जैनसाहित्यमे इनके ऐश्वर्यका बहुत वर्णन मिलता है। ये जन्मसे ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञानके घारी होते है। जन्मसे ही इनका शरीर अपूर्व कान्तिमान होता है। इनके निश्वासमें अपूर्व सुगन्धि रहती है। इनके शरीरका रक्त और मांस सफेद होता है। केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् अर्थात् अर्हत् पद प्राप्त कर लेनेपर उनका उपदेश सुननेके लिये पशुपक्षी तक इनकी सभामे उपस्थित होते है। इस सभाको 'समवसरण' कहते है, जिसका अर्थ होता है 'समानरूपसे सवका शरणभूत' अर्थात् जिसकी शरणमे सव आते है। इस सभामें वारह प्रकोष्ठ होते है, जिनमे एक प्रकोष्ठ पशुओंके लिये भी होता है। तीर्थङ्करकी वाणीको पशु भी समझ लेते है। जहाँ जहाँ इनका विहार होता है वहाँ वहाँ रोग, वर, महामारी, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष, आदि रह नहीं सकते। तीर्थदर भगवान्के पवारनेके साथ ही देश में सर्वत्र शान्ति छा जाती है । कैवल्यलाभ करनेके पश्चात् ये अपना शेष जीवन ससारके प्राणियोंका उद्धार करने में ही व्यतीत करते है। इसीसे जैनोके परमपवित्र पञ्च नमस्कार मंत्रमे अरिहंतको प्रथम स्थान दिया गया है
णमो अरिहताण-अर्हन्तोको नमस्कार हो।
१ सम्भवत. इस 'अर्हत्' नाम परसे हिन्दू पुराणकारोने यह कल्पना कर डाली है. कि किसी 'अहंत' नामके राजाने जैनधर्मकी स्थापना की थी। अहंत कितीका नाम नहीं है बल्कि जैन तीर्थकरोका एक पद है। इस पदको प्राप्त कर लेनेपर ही वे जीवन्मुक्त होकर ससारको कल्याणका मार्ग बतलाते है, वही मार्ग उनके 'जिन' नाम परसे जैनधर्म कहा जाता है।