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जनघम
जब इन अर्हन्तोकी आयु थोडी शेष रह जाती है तव ये योगका तरोध करके वाकी बचे चार अघातिया कर्मो को भी नष्ट कर देते । चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश होनेपर इन्हें मुक्तिकी प्राप्ति ती है। इनका शरीर यही छूट जाता है और अपने स्वाभाविक ज्ञानादि गोसे युक्त केवल शुद्ध आत्मा रह जाता है, जो मुक्त होनेके पश्चात् वाभाविक उद्र्ध्वगमनके द्वारा लोकके ऊपर अग्रभागमें जाकर ठहर आता है। मुक्त होनेके पश्चात् सामान्य केवली और तीर्थं कर केवली में कोई अन्तर नही रहता, दोनोंको एक ही प्रकारकी मुक्ति प्राप्त होती
। यद्यपि संसारमे सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थङ्कर केवली अधिक पूजनीय माने जाते है, क्योकि तीर्थङ्कर केवलीसे ससारको हुत लाभ पहुँचता है, किन्तु मुक्त होनेपर दोनों में इस तरहका कोई अन्तर नही रहता। संसार अवस्थामें जो कुछ अन्तर था वह तीर्थङ्कर दके कारण था । मुक्त होनेपर इस पदसे भी मुक्ति मिल जाती है, त. मुक्तिमें सामान्य केवली और तीर्थङ्कर केवली में कोई भेद नहीं हता । दोनों मुक्त कहे जाते है । मुक्तोंको जैनसिद्धान्तमें 'सिद्ध'
कहते है । यद्यपि अर्हन्तोसे सिद्धों का पद ऊँचा है; क्योकि अर्हन्त वन्धनसे सर्वथा मुक्त नही होते और सिद्ध उससे सर्वथा मुक्त होते , तथापि सिद्धोको अर्हन्तोंके बाद नमस्कार किया गया है । यथाणमो सिद्धाणं - सिद्धोंको नमस्कार हो ।
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इस प्रकार जैनदृष्टि अर्हन्तपद और सिद्धपदको प्राप्त हुए जीव ईश्वर कहे जाते है । प्रत्येक जीवमे इस प्रकारके ईश्वर होनेकी शक्ति है । परन्तु अनादिकाल से कर्मबन्धनके कारण वह शक्ति ढकी ई है। जो जीव इस कर्मवन्धनको तोड़ डालता है उसके ही ईश्वर की शक्तियाँ प्रकट हो जाती है और वह ईश्वर वन जाता हूँ । इस तरह ईश्वर किसी एक पुरुष विशेषका नाम नही है । किन्तु अनादिकालसे जो अनन्त जीव मर्हन्त मोर सिद्धपदको प्राप्त हो गये है और मागे होगे उन्हीका नाम ईश्वर है ।