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सिद्धान्त
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करके मुक्त होते हैं, वे कभी भी उसके बराबर नही हो सकते। उसका ऐश्वर्य अविनाशी है, क्योकि कालके द्वारा उसका कभी नाश नही होता । ऐसे अनादि अनन्त पुरुषविशेषको ईश्वर कहा जाता है । किन्तु जैनधर्ममे इस प्रकारके ईश्वरके लिये कोई स्थान नही है । उसका कहना है
'नात्सृष्ट' कर्मभिः शखद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथाऽनुपपत्तित ॥८॥ आप्तप० । 'कोई सर्वद्रष्टा सदासे कर्मोसे अछूता हो नही सकता, क्योकि बिना उपायके उसका सिद्ध होना किसी भी तरह नही बनता ।'
असलमे ईश्वरको अनादि माननेके कारण उसे सदा कर्मोसे अछूता माना गया है और चूंकि वह सृष्टिका रचयिता है इसलिये उसे अनादि माना गया है । किन्तु जैनधर्म किसीको इस विश्वका रचयिता नही मानता, जैसा कि हम पहले बतला आये है । अत वह किसी एक अनादिसिद्ध परमात्माको सत्तासे इंकार करता है । उसके यहाँ यदि इश्वर है तो वह एक नहीं, बल्कि असंख्य है । अर्थात् जैनधर्मके अनुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नही हो सकती । उनकी संख्या मनन्त है और आगे भी वे बरावर अनन्तकाल तक होते रहेंगे, क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ताको लिये हुए मुक्त हो सकता है । आज तक ऐसे अनन्त आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होगे । ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर है । इन्ही मेंसे कुछ मुक्तात्माओं को जिन्होने मुक्त होनेसे पहले ससारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था, जैनघर्म तीर्थङ्कर मानता है ।
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जैनधर्मका मन्तव्य है कि अनादिकालसे कर्मबन्धनसे लिप्त होनके कारण जीव अल्पज हो रहा है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढंके हुए है । इन आवरणोके दूर होनेपर यह जीव अनन्त ज्ञान आदिका अधिकारी होता है अर्थात् सर्वन हो जाता है । जो जो महापुरुष कर्मवन्धनको काटकर मुक्त हुए
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