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सिद्धान्त
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है वह जीव है। जैसे आग अपने उष्ण गुणको छोडकर नही रह सकती, वैसे ही जीव भी ज्ञानगुणके बिना नहीं रह सकता। एकेन्द्रिय वृक्ष रहनेवाले जीवसे लेकर मुक्तात्माओं तकमे हीनाधिक ज्ञान पाया जाता है। सबसे कम ज्ञान वनस्पतिकायके जीवोमे पाया जाता है और सबसे अधिक यानी पूर्णज्ञान मुक्तात्मामे पाया जाता है।
जैनेतर दार्शनिकोमे नैयायिक वैशेषिक भी ज्ञानको जीवका गुण मानते है। किन्तु उनके मतानुसार गुण और गुणी ये दोनो दो पृथक् पदार्थ है और उन दोनोंका परस्परमें समवायसम्बन्ध है। अत. उनके मतसे आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है, किन्तु उसमें ज्ञानगुण रहता है इसलिये वह ज्ञानवान् कहा जाता है। किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है तो वह अज्ञानस्वरूप ठहरता है। और उसके अज्ञानस्वरूप होनेपर आत्मा और जडमें कोई अन्तर नहीं रहता। इसपर नैयायिकका कहना है कि आत्माके साथ तो शानका सम्बन्ध होता है किन्तु जड घटादिकके साथ ज्ञानका सम्बन्ध नहीं। होता। इसलिये आत्मा और जडमे अन्तर है। इसपर जैन दार्शनिकोंका कहना है कि जब आत्मा भी ज्ञानस्वरूप नही है और जड भी ज्ञानस्वरूप नहीं है, फिर भी ज्ञानका सम्बन्ध आत्मासे ही क्यो होता है, जडसे क्यो नही होता? यदि कहा जायेगा कि आत्मा चेतन है इसलिये, उसीके साथ ज्ञानका सम्बन्ध होता है तो इस पर जैन दार्शनिकोका यह कहना है कि नैयायिक आत्माको स्वय चेतन भी नहीं मानता किन्तु चैतन्यके सम्बन्धसे ही चेतन मानता है। ऐसी स्थितिमे जानकी ही तरह चेतनके सम्बन्धमें भी वही प्रश्न पैदा होता है कि चैतन्यका सम्बन्ध, आत्माके ही साथ क्यो होता है घटादिकके साथ क्यो नही होता? अत. इस आपत्तिसे बचनेके लिये आत्माको स्वय चेतन और ज्ञानस्वरूप मानना चाहिये। जैसा कि कहा है
‘णाणी णाण च सदा अत्यतरिदो दु अण्णमण्णस्स। दोण्ह अचेदणत्त पसजदि सम्म जिणावमद ॥४८॥