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जनधर्म
'यह जीव चैतन्यस्वरूप है, जानने देखनेरुप उपयोगवाला है, भु है, कर्ता है, भोक्ता है और अपने शरीरके बराबर है। तथा द्यपि वह मूर्तिक नहीं है तथापि कर्मोंसे सयुक्त है।'
इस गाथाके द्वारा जीवद्रव्यके सम्बन्धमें जैनदर्शनकी प्रायः सभी ख्य मान्यताओको वतला दिया है। उनका खुलासा इस प्रकार है
जीव चेतन है
जीवका असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने और देखनरूप है। अर्थात् जो जानता और देखता है वह जीव है । पाख्य भी चेतनाको पुरुषका स्वरूप मानता है, किन्तु वह उसे ज्ञानरूप
ही मानता। उसके मतसे ज्ञान प्रकृतिका धर्म है। वह मानता है के ज्ञानका उदय न तो अकेले पुरुषमें ही होता है और न वुद्धिमें ही होता है। जव ज्ञानेन्द्रियाँ वाह्य पदार्थोको वुद्धिके सामने उपस्थित करती ई तो बुद्धि उपस्थित पदार्थके आकारको धारण कर लेती है। इतने पर भी जब बुद्धिमें चैतन्यात्मक पुरुषका प्रतिविम्ब पडता है तभी जानका उदय होता है। परन्तु जैनदर्शनमें बुद्धि और चैतन्यमे कोई भेद ही नही है। उसमे हर्ष, विषाद आदि अनेक पर्यायवाला ज्ञानरूप एक आत्मा ही अनुभवसे सिद्ध है । चैतन्य, वुद्धि, अध्यवसाय, ज्ञान आदि उसीकी पर्याये कहलाती है। अत चैतन्य ज्ञानस्वरूप ही है । उसकी दो अवस्थाएँ होती है। एक अन्तर्मुख और दूसरी बहिर्मुख जब वह आत्मस्वरूपको ग्रहण करता है तो उसे दर्शन कहते है और जब वह बाह्य पदार्थको ग्रहण करता है तो उसे ज्ञान कहते है। ज्ञान और दर्शनमे मुख्य भेद यह है कि जैसे ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है इत्यादि रूपसे वस्तुकी व्यवस्था होती है, उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती। अत जीव चैतन्यात्मक है, इसका आशय है कि जीव ज्ञानदर्श नात्मक है, ज्ञान दर्शन जीवके गुण या स्वभाव है। कोई जीव उनके बिना रहही नही सकता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जोज्ञानवान्