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जैनधर्म
र दिया। उनके पश्चात् आप्तमीमांसापर 'अष्टशती" नामक ष्यके रचयिता श्रीअकलंकदेवने मेष तीन भगोका उपयोग करके स कमीको पूरा कर दिया। उनके मतसे शंकराचार्यका अनिर्वचयवाद सत्वक्तव्य, बौद्धोका अन्यापोहवाद असदवक्तव्य और योगम पदार्थवाद सदसदवक्तव्य कोटिमें गभित है। इस तरह सातो गोंका उपयोग हो जाता है।
३. द्रव्य-व्यवस्था जैनदर्शनके मूलतत्त्व अनेकान्तवाद और उसके फलितार्थ स्याद्वाद रसप्तभंगीवादका परिचय कराकर अव द्रव्यव्यवस्थाको बतलाते है। __ यद्यपि द्रव्यका लक्षण सत् है तथापि प्रकारान्तरसे गुण और र्यायोंके समूहको भी द्रव्य कहते हैं। जैसे, जीव एक द्रव्य है, उसमें ख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर नारकी आदि पर्याय पाई नाती है। किन्तु द्रव्यसे गुण और पर्यायकी पृथक् सत्ता नहीं है। ऐसा
ही है कि गुण पृथक् है, पर्याय पृथक् है और उनके मेलले द्रव्य बना है। किन्तु अनादिकालले गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है । साधारण तिते गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती है। अतः द्रव्यको नेत्य-अनित्य कहा जाता है। जैनदर्शनमें सत्का लक्षण उत्साद, व्यय और प्रौव्य माना गया है। अर्थात् जिसमें प्रति समय उत्पत्ति, विनाश मौर स्थिरता पाई जाती है वही सत् है। जैसे, मिट्टीते घट बनाते समय मिट्टीकी पिण्डरूप पर्याय नष्ट होती है, घट पर्याय उत्पन्न होती है और मिट्टी कायम रहती है। ऐसा नहीं है कि पिण्ड पर्यायका नाश पृथक समयमें होता है और घट पर्यायकी उत्पत्ति यक् समयमें होती है। किन्तु जो समय पहली पर्यायके नागका है, ही समय आगेकी पर्यायके उत्पादका है। इस तरह प्रतिसमय पूर्व यिका नाश बोर लागेको पर्यायकी उत्पत्तिके होते हुए भी द्रव्य कायम २. अष्टसहती पृ० १३८-१४२॥
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