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चारित्र
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५ । इन कामोंके करनेसे अपना कुछ लाभ नही होता, बल्कि उल्ट हानि ही होती है और दूसरोंको व्यर्थमे कष्ट उठाना पडता है । अश्ली चर्चाएँ करना, शरीरसे कुन्सित चेष्टाएं करना, व्यर्थकी बकवा करना, बिना सोचे समझे ऐसे काम कर डालना जिससे अपना कोई ला न हो और दूसरोंको व्यर्थमे कष्ट उठाना पडे, तथा भोग और उपभोग के साधनोंको आवश्यकतासे अधिक संचय कर लेना, ये सब काम ए सद्गृहस्थको कभी भी नही करने चाहिये ।
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४ -- प्रात. ओर सन्ध्याको एकान्त स्थानमे कुछ समयके हिंसा वगैरह समस्त पापोसे विरत होकर आत्मध्यान करनेका अभ्या करना चाहिये । उसमें मन वचन और कायको स्थिर करके आप और उसके अन्तिम लक्ष्य मोक्षके बारेमे चिन्तन करना चाहिये । यद्य मन वचन और कायको एकाग्र करना बडा कठिन है, किन्तु अभ्यास सव साध्य है। प्रारम्भमें कुछ कष्ट अनुभव होता है, शरीर निश्च रहना नही चाहता, मन- विद्रोह करता है और मंत्र पाठको जल्दी-जल्ल बोलकर समाप्त कर देना चाहता है, फिर भी इनको रोकना चाहिये जब ये सघ जाते है तो मनुष्यको बड़ी आध्यात्मिक शान्ति मिलती है"
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५ -- प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशी के दिन मन, वचन अ कायकी स्थिरताको दृढ करनेके लिये चारों प्रकारके आहारको त्या कर उपवास करना चाहिये । उस दिन न कुछ खाना चाहिये और कुछ पीना चाहिये । किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हों वे केवल ले सकते है । और जो केवल जलपर भी न रह सकते हों, उन्हे एकबार हल्का सात्विक भोजन करना चाहिये । जो व्यक्ति उपवा करना चाहें, उन्हें चाहिये कि वे अष्टमी और चतुर्दशीके पहले दिन द हरका भोजन करके उपवासकी प्रतिज्ञा ले ले। और घर-गृहस्थ काम धामसे अवकाश लेकर एकान्त स्थानमे चले जाये और अपना सम् आत्मचिन्तन और स्वाध्यायमें बितावें । सन्ध्याको दैनिक कृत्य निवटकर पुन अपने उसी काममें लग जाये। रात्रिको विश्राम
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