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सिद्धान्त
महन्त अवस्थाको प्राप्त किये बिना पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ नह' होते और बिना वीतरागता और सर्वज्ञताके धर्मतीर्थका प्रवर्ततीप नही हो सकता। अत धर्मतीर्थके प्रवर्तक जैन तीर्थङ्करोंकी मूर्तिय । जैनमन्दिरोमे बहुतायतसे पाई जाती है। ये मूर्तियाँ पद्मासना होती है और खड्गासन भी होती है, किन्तु होती सभी ध्यानस्थ है एक आत्मध्यानमें लीन योगीकी जैसी आकृति होती है वैसी ही आकृति उन मूर्तियोंकी होती है। भगवद्गीतामे योगाभ्यासीका चित्रण करते हुए लिखा है- 4
'समं कायशिरोग्रीव धारयन्नचल स्थिर । सम्प्रेक्ष्य नासिकानं स्व दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभी ब्रह्मचारिद्रते स्थित.।
मन. सयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर ॥१४॥' अ०६५ भावार्थ-शरीर, सिर और गर्दनको सीधा रखकर, निश्चलैं हो, इधर उधर न देखते हुए, स्थिर मनसे अपनी नाकके अग्रभागपत दृष्टि रखकर प्रशान्त आत्मा, निर्भय हो, ब्रह्मचर्य व्रतमे स्थित होकर तथा मनको वशमें करके मेरेमे मनको लगा।
जैनमूर्तिकी भी विल्कुल ऐसी ही मुद्रा होती है। उसकी दृष्टि नाकके अग्न भागपर रहती है। शरीर, सिर और गर्दन एक सीधर्म रहते है। पद्मासनमे वाई हथेलीके ऊपर दाई हथेली खुली होती है।
और खड्गासनमे दोनों हाथ जानुतक लटके रहते है। चेहरेपर शान्ति निर्भयता और निर्विकारता खेलती रहती है। शरीरपर विकारक ढाकनेके लिये न कोई आवरण होता है और न सौदर्यको चमकानेको लिये कोई आभरण रहता है। न हायमें कोई अस्त्र शस्त्र ही होता है। भगवत्गीतामे कही हुई जिस योगमुद्रासे योगी निर्वाण लाभ करते है, वही मुद्रा जैनमूर्तिमे अंकित रहती है। देखनेवालेको यही प्रतीत होता है कि वह किसी प्रशान्तात्मा योगीकी मूर्तिका दर्शन कर रहा है। न वहाँ राग है और न वैर-विरोध ।
सिद्धोंकी भी मूर्ति रहती है, किन्तु चूकि सिद्ध परमेष्ठी देहरहित