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________________ । ११८ जनधम होते है, इसलिये पीतलकी चादरके बीचमेसे मनुष्याकारको काटकर 'मनुष्याकाररूप खाली स्थान छोड़ दिया जाता है। आचार्य, उपाध्याय 'और साधुकी भी मूर्तियां कही कही पाई जाती है। इनकी मूर्तियोमे साधुके चिह्न पीछी और कमण्डलु अकित रहते है। सारांश यह है कि जनमूर्ति जैनोके आराध्य पञ्चपरमेष्ठियोंकी प्रतिकृतिरूप होती है । । जिनमन्दिरमे जाकर देवदर्शन करना प्रत्येक जैन श्रावक और श्राविकाका नित्य कर्तव्य है। वहाँ वह यह विचारता है कि यह मन्दिर जिन भगवानका समवसरण--उपदेशसभा है,वेदीमे विराजमान जिनकी मूर्ति ही जिनेन्द्रदेव है, और मन्दिरमे उपस्थित स्त्री पुरुष ही श्रोतागण है। ऐसा विचार करके अच्छी अच्छी स्तुतियां पढते हुए जिन भगवान्को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। और यदि पूजन करना औता है तो पूजा भी करता है। पूजामे सबसे पहले जलसे मूर्तियोंका अभिषेक किया जाता है। कही कही दूध, दही, घी, इक्षुरस और सौंबंधी रससे भी अभिषेक करनेकी पद्धति है। अभिषेकके पश्चात् पूजन किया जाता है । यह पूजन जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्योसे किया जाता है। एक एक पद्य बोलते जाते है और नम्बरवार एक एक द्रव्य चढाते जाते है। द्रव्य चढाते समय द्रव्य चढ़ानेका उद्देश्य बोलकर द्रव्य चढाते है । यथा-मै जन्म, जरा और मृत्युके विनाशके लिये जल चढ़ाता हूँ। अर्थात् जैसे जलसे जन्दगी दूर हो जाती है वैसे ही मेरे पीछे लगे हुए ये रोग धुलकर दूर हो जावें । मै संसाररूपी सन्तापकी शान्तिके लिये चन्दन चढाता है। मै अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्तिके लिये अक्षत चढाता हूँ ३ । मै कामके विकारको दूर करनेके लिये पुष्प चढाता हूँ ४ । मै क्षुधारूपी रोगको दूर करनेके लिये नैवेद्य चढाता है ५। में अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करनेके लिये दीप चढाता हूँ ६ । मै आठों कर्मोको जलाने के पैलये धूप चढाता हूँ ७। यह घूप अग्निमें चढाई जाती है । में मोक्षफलकी प्राप्तिके लिये फल चढ़ाता हूँ। एक एक करके आठो द्रव्य
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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