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सिद्धान्त
११८ चढानेके बाद आठों द्रव्योंको मिलाकर चढ़ाया जाता है उसे 'अय' कहते है। यह भी अनर्घ अर्थात् अमूल्यपदकी प्राप्ति के उद्देश्यसे चढाया जाता है। - इस प्रकार पूजाका उद्देश्य भी अपने विकारों और विकारोके कारणोंको दूर करके चरम लक्ष्य मोक्षकी प्राप्ति ही रखा गया है । * पूजाके दो भेद किये गये है-द्रव्यपूजा और भावपूजा। शरीर और'
वचनको पूजनमें लगाना द्रव्यपूजा है और उसमे मनको लगाना भावपूर्जा है। शरीरको लगानेके लिये द्रव्य रखे गये है, जिससे हाथ वगैरहका उपयोग उनके चढानेमे ही होता रहता है। और वचनको उसमे लगाने-' के लिये पद्य रखे गये है जिन्हे पढ पढ करके द्रव्य चढाया जाता है इस तरह मनुष्यका शरीर और वचन पूजनमे रहनेपर भी यदि उसका मन उसमे न रम रहा हो तो वह पूजन बेकार ही है क्योकि बिना भावक कोई क्रिया फलदायक नहीं होती। जैसा कि कल्याणमन्दिरस्तोत्रम्ह कहा भी है'आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि
नून न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनवान्धव | दुखपात्र ।
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या. ॥३॥' 'हे जनबन्धु ! तुम्हारा उपदेश सुनकर भी, तुम्हारी पूजा कर भी और तुम्हें बारम्बार देखकर भी अवश्य ही मैने भक्तिपूर्वक तुम्हें, अपने हृदयमे स्थापित नही किया। इसीसे मैं दुखोंका पात्र बना. क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी भी फलदायी नहीं होती।
अत द्रव्य पूजाके साथ शारीरिक और वाचनिक पूजाके सार साथ-भावपूजाका-मानसिक पूजाका होना आवश्यक है। किन्तु भावपूजा ऊपर कहे गये आठ द्रव्योके बिना भी हो सकती है। द्रव्य तो मन, वचन और कायको लगानेके लिये एक आलम्बनमात्र है।
इस प्रकार जैनमूर्तिका स्वरूप और उसकी पूजाविधि बतलाक उसके उद्देश्यपर एक दृष्टि डालना आवश्यक है।
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