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सिद्धान्त
१३७ की भोर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलनेसे संसारलाभ होता है । अत बुद्धिके कर्मानुसार होनेसे मुक्तिकी प्राप्तिमे कोई वाधा नहीं आती।
इस तरह जव जीव कर्म करनेमे स्वतंत्र नहीं है तो घातकका घातरूपकर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा। और बुद्धिकी' दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल कही जायेगी। ऐसी स्थितिमे यदि हम कर्मफलदाता ईश्वरको मानते है तो उस घातककी दुष्ट बुद्धिका कर्ता ईश्वरको ही कहा जायेगा । इसपर हमारी विचारशक्ति कहती है कि एक विचारशील फलदाताको किसी व्यक्तिके वुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिये जो उसकी सजाके रूपमे हो, न कि उसके द्वारा दूसरोको सजा दिलवानेके रुपमे हो। किन्तु ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है, क्योकि उसे उस घातकके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है। किन्तु घातकको, जिस वुद्धिके कारण वह परकाः घात करता है उस वुद्धिको विगाडनेवाले कर्मोंका क्या फल मिला ? इस फलके द्वारा तो दूसरेको सजा भोगनी पड़ी। किन्तु यदि ईश्वरको. फलदाता न मानकर जीवके कर्मोमें ही स्वत फलदानकी शक्ति मान लो जाय तो उक्त समस्या आसानीसे हल हो जाती है, क्योकि, मनुष्य के बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका सस्कार डाल देते। है, जिससे वह कोवमें आकर दूसरोंका घात कर डालता है और इस तरह उसके बुरे कर्म उसे बुरे मार्गको ओर ही तवतक लिये चले। जाते है जब तक वह उघरसे सावधान नहीं होता। अत ईश्वरको। कर्मफलदाता माननमे इस तरहके अन्य भी अनेक विवाद खड़े होते है। जिनमेंते एक इस प्रकार है--
किसी कर्मका फल हमे तुरन्त मिल जाता है, किसीको कुछ। माह बाद मिलता है, किसीका कुछ वर्ष बाद मिलता है और किसीका जन्मान्तरमें मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोगमे समयको विपमता क्यो देखी जाती है । ईश्वरवादियोकी ओरसे