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________________ - २५६ -- - जैनधर्म विस्तृत वर्णन था, वह अव नष्ट हो चुका है। इससे पता लगता है कि पहले कलाका अर्थ वहत व्यापक था। उसमे जीवन-यापनसे लेकर जीव-उद्धार तकके सव सत्प्रयल सम्मिलित थे। कहा भी है कला वहत्तर पुरुपकी, तामें दो सरदार। एक जीवकी जीविका, एक जीव-उद्धार ॥ जैन धर्मका तो प्रधान लक्ष्य ही जीव उद्धार है। बल्कि यदि कहा जाय कि जीव उद्धारक लिए किये जाने वाले सत्प्रयत्नोका नाम ही जनधर्म है तो अनुचित न होगा। इसी से आज कलाकी परिभाषा जो सत्य शिवं सुन्दर' की जाती है, अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है, वह जैनकलामें सुघटित है, क्योकि जैनधर्मसे सम्बद्ध चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकला, सुन्दर होनेके साथ ही साथ कल्याणकर भी है और सत्यका दर्शन कराती है। नीचे उनका परिचय सक्षेपमें दिया जाता है। चित्रकला सरगुजा राज्यके अन्तर्गत लक्ष्मणपुरसे १२ मील रामगिरि नामक पहाड है वहाँ पर जोगीमारा गुफा है। गुफाकी चौखट पर बड़े ही सुन्दर चित्र अकित है। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टिसे प्राचीन है तथा जनधर्मस सम्बन्धित है। परन्तु सरक्षणके अभावसे चित्रोंकी हालत खराब हो गयी ह। पुद्दुकोटे राज्यमें राजधानीसे मील उत्तर एक जैन गुफा मन्दिर है। उसे सितनवासल कहते है। सितनवासल का प्राकृत रूप है सिद्धण्णवास-सिद्धोंका निवास। इसकी भीतोंपर पूर्व-पल्लव राजाओकी शैलीके चित्र है, जो तमिल सस्कृति और साहित्यके महान् सरक्षक प्रसिद्ध कलाकार राजा महेन्द्रवर्माप्रथम (६००-६२५ ई०) के वनवाये हुए है और अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही साथ सबसे प्राचीन जैन चित्र है। इसमें तो कोई सन्देह नही कि अजताके सर्वोत्कृष्ट चित्रोक साथ 'सितनवासलके चित्रोकी तुलना करना अन्याय होगा। किन्तु ये चित्र
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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