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सामाजिक रूप
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" इस समाज के कुल गुरुओने अपने पसन्द पड़े वस्त्रपात्र बादके समर्थन के लिए पूर्वके महापुरुषोको भी चीवरघारी बना दिया है और श्रीवर्द्धमान महाश्रमणकी नग्नता न देख पड़े इस प्रकारका प्रयत्न भी किया है । इस विषय के अनेक ग्रन्थ लिखकर 'वस्त्र - पात्र' वादको ही मजबूत बनानेकी वे आजतक कोशिश कर रहे हे। उनके लिए आपवादिक माना हुआ वस्त्र - पात्र' वादका मार्ग औत्सर्गिक मार्गके समान हो गया है । वे इस विषय मे यहाँतक दौडे है कि चाहे जैसे अगम्य जगलमें, भीषण गुफार्मे या चाहे जैसे पर्वतके दुर्गम शिखरपर भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुए पुरुष वा स्त्रीको जैनी दीक्षाके लिए शासनदेव कपडे पहनाता है और वस्त्रके बिना केवलज्ञानीको अमहाव्रती तथा अचारित्री कहते तक भी नही हिचकिचाये । कोई मुनी वस्त्ररहित रहे ये बात उन्हें नहीं रुचती । इनके मतसे वस्त्र पात्रके बिना किसीकी गति ही नही होती ।"
दूसरी ओर दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट घोषणा कर दी थी।
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'ण" वि सिज्झइ वत्यधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्ययरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥
अर्थात् 'जिनशासनमे तीर्थङ्कर ही क्यों न हो यदि वह वस्त्रधारी है तो सिद्धिको प्राप्त नही हो सकता । नग्नता ही मोक्षका मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है।' साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा
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"नग्ग्गो पावइ दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ । नग्गो न लहइ वोहि जिणभावणवज्जिओ सुइर ॥६८॥ अर्थात्- 'जिन भावनासे रहित नग्न दुख पाता है, संसाररूपी सागरमे भटकता है और उसे ज्ञानलाभ नही होता ।'
इस तरह एक ओरके शिथिलाचार और दूसरी ओरकी दृढता कारण संघभदके बीजमे अंकुर फूटते गये मोर धीरे-धीरे उन्होंने बृ
१. षट् प्राभृ० ६७ ।
२. षट् प्राभृता० पृ० २११ ।