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जैनधर्म और महावृक्षका रूप धारण कर लिया। प्रारम्भमे श्वेताम्वरता और दिगम्वरताका यह झगड़ा सिर्फ मुनियों तक ही था, क्योकि उन्हीको नग्नता और सवस्त्रताको लेकर यह उत्पन्न हुआ था। किन्तु आग श्रावकोंकी भी क्रियापद्धतिमें उसे सम्मिलित करके धावको भी झगड़के वीज बो दिये गये जो आज तीर्थक्षेत्रोंके झगडेके रूपमे अपने विपफल दे रहे है। इस वातके प्रमाण मिलते है कि प्राचीन कालमे दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओंका भेद नही था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओको पूजते थे। मुनि जिन विजयजीने (जैन हितैषी भाग १३, अंक ६ मे) लिखा है___ "मथुराके कंकाली टीलामें जो लगभग दो हजार वर्षको प्राचीन पतिमाएं मिली है, वे नग्न है और उनपर जो लेख है वे श्वेताम्बर कल्पसूत्रकी स्थविरावलीके अनुसार है।"
इसके सिवा १७वी शताब्दीके श्वेताम्बर विद्वान पं० धर्मसागर पाध्यायने अपने प्रवचनपरीक्षा नामक ग्रन्यमें लिखा है
"गिरनार और गजयपर एक समय दोनो सम्प्रदायोमें झगडा आ और उसमें शासन देवताको कृपाले दिगम्बरोंकी पराजय हुई। व इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध हो गया, वि आगे किसी प्रकारका झगडा न हो सके इसके लिए श्वेताम्बरसघने ह निश्चय किया कि अवसे जो नयी प्रतिमाएं वनवायी जाय, उनके दिमूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाय। यह सुनकर दिगम्बरियोको नोव ना गया और उन्होने अपनी प्रतिमाओको स्पष्ट नग्न बनाना शुरु र दिया। यही कारण है कि सम्प्रति राजा आदिको वनवायी हुई तिमाजोपर वस्त्रलाउन नही है और सरप्ट नग्नत्व भी नहीं है ।"
इनने यह बात अच्छी तरह निद्ध होती है कि पहले दोनोको सिमाओमें भेद नहीं था। परन्तु अब तो दोनोकी प्रतिमाओम इतना
१.मार के अन्य प्रमाणा यि जन साहित्य और दतिरान' ०२४१