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जैनधर्म 'इस नगरमें चत्यवासी साधुओंको छोडकर दूसरे वनवासी साघु न मा सकेंगे। इस आज्ञाको रद्द करानेके लिए वि० सं० १०७० के लगभग जनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि नामके दो विधिमार्गी आचार्योन राजा दुर्लभदेवकी सभामें चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हे पराजित किया तब कही विधिमागियोका प्रवेश हो सका। राजानं उन्हे 'खरतर' नाम दिया। इसी परसे खरतर गच्छकी स्थापना हुई। इसके बादसे चैत्यवासियोंका जोर कम होता गया।
श्वेताम्बरोंमे आज जो जती या श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवास पा चैत्यवासी शाखाके अवशेष है और जो 'संवेगी मुनी कहलाते हैं व वनवासी शाखाके है। संवेगी अपनेको सुविहित मार्गका या विधिमार्गका अनुयायी कहते है। ' श्वेताम्वरोमे बहुतसे गच्छ थे। कहा जाता है कि उनकी संख्या २४ थी। किन्तु आज जो गच्छ है उनकी संख्या अधिक नहीं है। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके गच्छ इस प्रकार है--
१ उपकेशगच्छ-इस गच्छकी उत्पत्तिका सम्बन्ध भगवान् पार्श्वनायसे बताया जाता है। उन्हीका एक अनुयायी केशी इस गच्छका नेता था। आजके ओसवाल इसी गच्छके श्रावक कहे जाते है।
२ खरतरगच्छ इस गच्छका प्रथम नेता वर्धमान सूरिको बतलाया जाता है। वर्धमान सूरिके शिष्य जिनेश्वर सूरिने गुजरातके अणहिलपुर पट्टणके राजा दुर्लभदेवकी सभामें जब चैत्यवासियोको
रास्त किया और राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया तो उनके नामपरसे यह गच्छ खरतर गच्छ कहलाया। इस गच्छके अनुयायी अधिकतर राजपूताने और बंगालमें पाये जाते है। मुंबई प्रान्तमे इसके अनुयायियोकी संख्या थोटी है।
३ तपागच्छ---इस गच्छके संस्थापक श्रीजगच्चन्द्र सूरि थे । सं० १२८५ में उन्होंने उन तप किया। इन परसे मेवाड़के गजाने उन्हें 'तपा' उपनाम दिया। तवसे इनका वृहद्गच्छ तपागच्छके नामसे