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सामाजिक रूप
१७. मरुदेवी का हाथी पर चढे हुए मुक्तिगमन । १८. साधुका अनेक घरों से भिक्षा ग्रहण करना ।
इन बातोंको श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय नही मानता ।
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श्वेताम्बर चैत्यवासी
श्वेताम्बर चैत्यवासी सम्प्रदायका इतिहास इस प्रकार मिलता हैसघभेद होनेके पश्चात् वीर नि० स० ८५० के लगभग कुछ शिथिलाचारी मुनियोंने उन विहार छोडकर मन्दिरोंमें रहना प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे इनकी संख्या बढती गयी और आगे जाकर वे बहुत प्रवल हो गये । इन्होने निगम नामके शास्त्र रचे, जिनमें यह बतलाया गया कि वर्तमान कालमें मुनियोंको चैत्योंमें रहना उचित है। और उन्हे पुस्तकादिके लिये आवश्यक द्रव्य भी सग्रह करके रखना चाहिये । ये वनवासियोंकी निन्दा भी करते थे ।
इन चैत्यवासियो के नियमों का दिग्दर्शन चैत्यवासके प्रबल विरोधी श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने अपने 'सबोध प्रकरण' के गुर्वधिकारमे विस्तारसे कराया है । वे लिखते है
"ये चैत्य और मठोमे रहते हैं, पूजा और आरती करते हैं, जिनमन्दिर और शालाएं बनवाते है, देवद्रव्यका उपयोग अपने लिए करते है, श्रावकों को शास्त्रकी सूक्ष्म बाते बतानेका निषेध करते है, मुहूर्त निकालते है, निमित्त बतलाते है, रगीले सुगन्धित और धूपसे सुवासित वस्त्र पहनते है, स्त्रियोके आगे गाते हैं, साध्वियो के द्वारा लाये गये पदार्थो का उपयोग करते है, घनका सचय करते हैं, केशलोच नही करते, मिष्ट आहार, पान, घी, दूध और फलफूल आदि सचित्त द्रव्योका उपभोग करते है । तेल लगवाते है, अपने मृत गुरुओके दाह सस्कारके स्थानपर स्तूप बनाते है, जिन प्रतिमा वेचते है, आदि।"
वि० सं० ८०२ में अणहिलपुर पट्टणके राजा चावडासे उनके गुरु शीलगुण सूरिने, जो चैत्यवासी थे, यह आज्ञा जारी करा दी कि