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चारित्र
आशय यह है कि हिंसा दो प्रकारसे होती है एक कषायसे अर्थात जानबूझकर और दूसरे अयत्नाचार या असावधानीसे। जब एक मनुष्य क्रोध, मान , माया या लोभके वश दूसरे मनुष्यपर वार करता है तो वह हिंसा कषायसे कही जाती है और जब मनुष्यकी विधानता किसीका पात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुंचता है तो वह ह. अयत्नाचारसे कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख भालकर अपना कार्य कर रहा है और उस समय उसके चित्तम किसीको १५ पहुँचाने का भी भाव नहीं है, फिर भी यदि उसके द्वारा किसीको ४५६ पहुंचता है या किसीका घात हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा ज सकता। इसी वातको स्पष्ट करते हुए शास्त्रकारोने लिखा है
"उच्चालिदम्मि पादे इरियासमिदस्स पिगमट्ठाणे। आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज त जोगमासेज्ज । ण हि तस्स तणिमित्तो बधो सुहमो वि देसिदो समये।"
-प्रवच० पृ० २६२। अर्थात् 'जो मनुष्य आगे देख भालकर रास्ता चल रहा है उसके पैर उठानेपर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचलकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मरने का थोड़ा सा भी पाप आगममे नहीं कहा।'
किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानतासे कार्य कर रहा है उसे इस बातकी बिल्कुल परवाह नहीं है कि उसके इस कार्यसे किसीको हानि पहुँच सकती है या किसीके प्राणोंपर बन आ सकती है, और उसके द्वारा उस समय किसीको कोई हानि पहुंच भी नहीं रही हो, फिर भी वह हिंसाके पापका भागी है
'मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थिवधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥१७॥ --प्रवच०३।
अर्थात्-'जीव चाहे जिये चाहे मरे, असावधानतासे काम करनेवालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है। किन्तु जो सावधानीसे काम कर रहा है उसे प्राणिवघहो जानेपर भी हिंसाका पाप नही लगता।'