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जैनधर्म
यह ११ वी प्रतिमावाला उत्कृष्ट श्रावक सदा मुनियोके साथ ता है, उनकी सेवा सुश्रुषा करता है और अन्तरंग और बहिरंग करता है। उन तपोमेसे भी वैयावत्य तप खास तौरसे करता है। नजनोको कोई कष्ट होनेपर उसका प्रतीकार करनेको वैयावृत्य ते है, जैसे रोगियोकी परिचर्या करना, असमर्थोकी सहायता करना, जनोके पैर वगैरह दवाना आदि। श्रावकके लिये वैयावृत्य करनेका महत्व बतलाया गया है। इससे घृणाका भाव दूरहोता है सेवाभावप्रोत्साहन मिलता है और वात्सल्यभावकी वृद्धि होती है । तथा नको परिचर्या की जाती है वे सनायता अनुभव करते है, उनके त्तमें यह भाव नहीं होता कि कोई हमारी देखरेख करनेवाला नहीं है।
दूसरे भेदवाले उत्कृष्ट श्रावककी भी सभी क्रियाएँ पहलेके ही न होती है। केवल इतना अन्तर है कि यह सिर और दाढीक ओंको अपने हाथसे पकड़कर उखाड डालता है। इस क्रियाको लोच कहते है। केवल लगोटी लगाता है और मुनियोके समान पमें मोरके पंखोकी एक पीछी रखता है। उसीसे वह अपने बैठने लेटनेके स्थानको साफ करके जन्तुरहित कर लेता है। तथा गृहस्थक जाकर उसके प्रार्थना करने पर, उसीके घरमे अपने हाथमे ही भोजन ता है, पासमे बरतन नहीं रखता। दोनो हाथोको जोड़कर वाएं पकी कनअगुलिये दाहने हाथकी कनअंगुलिको फंसा कर पात्र बना लेता है। गृहस्थ वाएं हाथकी हथेलीपर भोजन रखता जाता और यह दाहिने हाथकी शेष चार अगुलियोसे उठाकर कौरको मे रखता जाता है। यह उत्कृप्ट श्रावक उत्तम उत्तम ग्रन्थोंका स्वाय करता है और खाली समयमें ससार, शरीर और उसके साथ ने सम्वन्धक विषयमें चिन्तन करता है।
इस प्रकार नैष्टिक श्रावकके ये ११ दर्जे है। इनको क्रमवार ही आ जाता है। ऐसा नहीं है कि कोई प्रारम्भकी क्रियाएँ न करके के दर्जेमें पहुंच जाये। यदि कोई ऐसा करता है तो आगे बढ जाने