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________________ चारित्र पहनको प्रार्थना कर याद कोई श्रावसर श्राप स्यानपर बैठता है या लेटता है तो अत्यन्त कोमल वस्त्र वगैरहसे स्थानको साफ कर लेता है, जिससे उसके बैठने या लेटनेसे + जन्तुको कोई पीड़ा न पहुंच सके। __इस पहले भेदवाले उत्कृष्ट श्रावकके भी दो विभाग है। एक जो अनेक घरोसे भिक्षा लेता है और दूसरा वह जो एक घरसे ही। लेता है। जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है वह भोजनके समय श्राप घर जाकर उसके आँगनमे खडा होकर 'धर्मलाम हो' ऐसा कह भिक्षाकी प्रार्थना करता है, अथवा मौनपूर्वक केवल अपनेको दिखा चला आता है। यदि श्रावक कुछ देता है तो उसे अपने पात्रमे ले ले है। किन्तु वहां देर नही लगाता और वहाँसे निकलकर दूसरे श्राप घर जाकर ऐसा ही करता है। यदि कोई श्रावक अपने घरपर भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो अन्य घरोंसे जो भोजन मिल पहले उसे खाकर पीछे आवश्यकताके अनुसार भोजन उस १५ ले लेता है। यदि कोई ऐसी प्रार्थना नही करता तो कई घरोंमे जा अपने उदर भरने लायक भोजन मांगता है और जहाँ प्रासुक 4 मिलता है वहाँ उसे देख भालकर खा लेता है। खाते समय स्वाद' ध्यान नहीं देता और न गृहस्थके घरसे कुछ मिलने या न मिलने अथ मिलनेवाले द्रव्यकी सरसता और विरसतापर ही ध्यान देता है भोजन करनेके पश्चात् अपना जूठा बर्तन स्वय ही मॉजता और ये है। यदि वह मानमें आकर दूसरेसे ऐसा काम कराता है तो यह मह असयम समझा जाता है। भोजन करनेके पश्चात् अपने गुरुके ।। जाकर दूसरे दिन तकके लिये वह आहार न करनेका नियम ले. है और गुरुके पाससे जानेके बादसे लेकर लौटने तक जो कुछ भी करता है वह सब सरलतापूर्वक गुरुसे निवेदन कर देता है। जोजक श्रावक एक घरसे ही भिक्षा ग्रहण करता है वह किसी मुनिके पीछे पी श्रावकके घर जाकर भोजन कर आता है। और यदि भोजन नह मिलता तो उपवास कर लेता है। काहे वह सव सरलतानके बादसे लेकार न करनका मन गुरुके ।।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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