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चारित्र
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पर भी उसे उस दर्जेवाला नही कहा जा सकता । जैनधर्म में शक्ति अनुमार किये गये कार्यका ही महत्व है । 'आगेको दौड और प छोड' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ नही होती। जो लोग उत्तरदा से बचने के लिये त्यागी बनना चाहते हैं, उनके लिये भी यहाँ स्थान न है । किन्तु जो अपने गार्हस्थिक उत्तरदायित्वका यथोचित प्रबन्ध कर 1 केवल आत्मकल्याणकी भावनासे इस मार्गका अवलम्बन लेते है वे इस पथके योग्य समझे जाते है ।
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साधक श्रावक
પૂર્વન
श्रावकका तीसरा भेद साधक है । मरणकाल उपस्थित पारीरते ममत्व हटाकर, भोजन वगैरहका त्याग करके, ध्यानके द्वारा जो आत्माका गोधन करता है उसे साधक कहते है सावककी इस क्रियाको समाधिमरण व्रत या सल्लेखना व्रत कहते जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वुढापा और रोग ऐसी हालतमे पहुँच जा जिसका प्रतीकार कर सकता शक्य न हो तो धर्मके लिये शरीर छो देना सल्लेखना या समाधिमरण कहाता है । समाधिमरण करने विधि बतलाते हुए लिखा है कि शरीर धर्मका साधन है इसलिये 41 वह धर्मसावनमें सहायक होता हो तो उसे नष्ट नही करना चाह और यदि वह विनष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिये तथा धर्मका साधन समझ कर ही शरीरको स्वस्थ रखना चाहिये - यदि कोई रोग हो जाये तो उसका प्रतीकार भी करना चाहिये । कि जव शरीर धर्मका वाघक वन जाये तो शरीरको छोडकर धर्मकी रक्षा करनी चाहिये, क्योकि शरीर नष्ट होनेपर पुन मिल जाये किन्तु धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है ।
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कोई कोई भाई समाधिमरण व्रतके स्वरूप और महत्त्वको न सम कर इसे आत्मघात बतलाते है । किन्तु धर्मपर आपत्ति आनेपर में रक्षाके लिये शरीरकी उपेक्षा कर देनेका नाम आत्मघात नही परन्तु क्रोधमे आकर विप आदिके द्वारा प्राणोके घात करनेका नाम