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जैनधर्म आठ अंगोमें से था। साथ ही साथ किसी भी साधर्मीका अपमान न करनेकी सख्त आज्ञा थी, जैसा कि लिखा है
"स्मयेन योज्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः ।। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धामिर्कविना ॥२६॥" रत्नकरड था
'जो व्यक्ति घमंडमे आकर अन्य धर्मात्माओंका अपमान करता है वह अपने धर्मका अपमान करता है, क्योकि धार्मिकोके विना धर्म नहीं रहता।' __इस तरह जनसंघकी विशालता, उदारता और उसकी संगठन शक्तिन किसी समय उसे बडा वल दिया था और उसीका यह फल है कि बौद्धधर्मके अपने देशसे लुप्त हो जानेपर भी जैनधर्म बना रहा और अवतक कायम है। किन्तु अब वे वाते नहीं रही। लोगो साधीवात्सल्य लुप्त होता जाता है। अहंकार बढता जाता है। और किसीपर किसीका नियंत्रण नहीं रहा है। इसीलिए वह संगठन भी बव शिथिल होता जाता है।
२ संघभेद जैन तीर्थङ्करोंने धर्मका उपदेश किसी सम्प्रदायविशेषकी दृष्टिते नही किया था। उन्होने तो जिस मार्गपर चलकर स्वयं स्थायी सुख प्राप्त किया, जनताके कल्याणके लिये ही उसका प्रतिपादन किया। उनके उपदेशके सम्बन्धमें लिखा है
"अनात्मापं विना राग शास्त्रा शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् पिल्पिकरस्पन्मुिरज. किमपेक्षते ॥८॥" रत्नकरट प्रा०।
अर्यात-'तीर्थदुर विना किसी रागके दूसरों के हितका उपदेश देते है। गिल्पीके हाथके स्पर्शसे शन्द करनेवाला मृदङ्ग क्या कुछ अपेक्षा करता है।' • अर्थात् जने मिल्पीया हाप पटते ही मदनसे ध्वनि निकलती है
मे ही श्रोताओको हितकामनासे प्रेरित होकर वीतरागके द्वारा हितो. राग दिया जाता है। सीलिए उनका उपदेश किसी वर्गविशेष या