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चारित्र
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किन्तु बचपन में वही मनुष्य नंगा घूमता है, उसे देखकर किसीको लज्जा नही होती, क्योकि वह स्वय निर्विकार है । जब उसमें विकार आने लगता है तभी वह नग्नतासे सकुचाने लगता है और उसे छिपाने के लिए आवरण लगाता है । प्रकृति तो सबको दिगम्बर ही पैदा करती हे पीछेसे मनुष्य कृत्रिमताके आडम्बरमे फँस जाता है। अतः जो साधु होता है वह कृत्रिमताको हटाकर प्राकृतिक स्थितिमे आ जाता है । उसे फिर कृत्रिम उपकरणोंकी आवश्यकता नही रहती । इसीलिए सिर और दाढ़ी मूछो केशोंको दूसरे, चौथे अथवा छठे महीने में बह अपने हाथसे उपार डालता है । साघुत्वकी दीक्षा लेते समय भी उसे केशोंका लुञ्चन करना होता है। ऐसा करनेके कई कारण है -- प्रथम तो ऐसा करनेसे जो सुखशील व्यक्ति है और किसी घरेलू कठिनाई या अन्य किसी कारणसे साधु बनना चाहते है वे जल्दी इस ओर अग्रसर नही होते और इस तरह पाखण्डियोंसे साघुसघका बचाव हो जाता है । दूसरे, साधु होनेपर यदि केश रखते है तो उनमें जूं वगैरह पड़ने से वे हिंसाके कारण वन जाते है और यदि क्षौरकर्म कराते है तो उसके लिए दूसरोंसे पैसा वगैरह माँगना पड़ता है । अत वैराग्य वगैरहकी वृद्धिके लिए यतिजनोंको केशलोच करना आवश्यक बतलाया है ।
लिंग चिह्नको कहते है। जिन लिंग या चिह्नोसे मुनिकी पहचान होती है वे मुनिके लिंग कहलाते है। लिंग दो प्रकारके होते है द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्यचिह्न और भावलिंग अर्थात् आभ्यन्तर चिह्न | जैनमुनिके ये दोनों चिह्न इस प्रकार बतलाये है
" जवजादरुवजाद उप्पादिकेसमंसुग सुद्ध | रहिद हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिंग ॥ ५ ॥ मुच्छारम्भविमुक्क जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहि ।
लिंग ण परावेक्ख अणभवकारण जेन्ह ॥ ६ ॥ -- प्रवचनसा० ३। 'मनुष्य जैसा उत्पन्न होता है वैसा ही उसका रूप हो अर्थात् नग्न हो, सिर और दाढी मूछोंके वाल उखाड़े हुए हों, समस्त बुरे कामोंसे बचा हुआ हो, हिसा आदि पापोसे रहित हो और अपने शरीरका संस्कार