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जैनधर्म वगैरह न करता हो। यह सब तो जैन साधुके वाह्य चिह्न है। तथा ममत्व और भारम्भसे मुक्त हो, उपयोग और मन वचन कायकी शुद्धिसे युक्त हो, दूसरोकी रचमात्र भी अपेक्षा न रखता हो। ये सव आभ्यन्तर चिह्न है जो मोक्षके कारण है।' ___ इस युगमे यह प्रश्न किया जाता है कि बाहिरी चिह्नकी क्या। आवश्यकता है ? मगर वाहिरी चिह्नोसे ही आभ्यन्तरकी पहचान होती है। आंखोंसे तो बाहिरी चिह्न ही देखे जाते हैं उन्हीको देखकर लोग उनके अभ्यन्तरको पहचाननेका प्रयत्न करते है। तथा लोकम भी मुद्राकी ही मान्यता है। राजमुद्राके होनेसे ही जरा सा कागज हजारो रुपयोमे बिक जाता है। अत. द्रलिंग भी आवश्यक है। ___ इस तरह जैनधर्ममें साधुको विल्कुल निरपेक्ष रखनेका ही प्रयत्न किया गया है। फिर भी उसे शरीरको बनाये रखने के लिए भोजनको
आवश्यकता होती है और उसके लिए उसे गृहस्थोके घर जाना पड़ता है। वहां जाकर भी वह किसीके घरमे नही जाता और न किसीस कुछ मांगता ही ह । केवल भोजनके समय वह गृहस्थोके द्वारपरसे निकल जाता है। गृहस्थोके लिए यह आवश्यक होता है कि वे भोजन तैयार होनेपर अपने अपने द्वारपर खडे होकर साघुकी प्रतीक्षा करे । यदि कोई साधु उधरसे निकलता है तो उसे देखते ही वे कहते है'स्वामिन् ठहरिये, ठहरिये, ठहरिये ।' यदि साधु ठहर जाते है तो वह उन्ह अपने घरमें ले जाकर ऊंचे आसनपर बैठा देता है। फिर उनके पर घोता है। फिर उनकी पूजा करता है। फिर उन्हें नमस्कार करता है। फिर कहता है-मन शुद्ध, वचन शुद्ध, काय शुद्ध और अन्न शुद्ध ।' इन सब कार्योंको नवधा भक्ति कहते हैं। नवधा भक्तिके करनेपर ही साधु भोजनगालामें पधारते है। इस नवधा भक्तिसे एक तो साधुको सद्गृहन्यकी पहचान हो जाती है-वे जान जाते है कि यह गृहस्य प्रमादी है या अप्रमादी? इसके यहां भोजन सावधानीसे बनाया गया है या अनावधानीस ? दूसरे, इससे गृहस्य के मनमें अवज्ञाका भाव