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जनधर्म
न किसीसे राग होता है और न किसीपर द्वेष । राग और द्वेषको दूर करनेके लिए ही तो वह साधुका आचरण पालता है। जैसा कि लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसज्ञान । रागद्वेषनिवृत्य चरण प्रतिपद्यते साधु ॥४७॥ रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ॥ अनपेक्षितार्थवृत्ति क पुरुष. सेवते नृपतीन् ॥४॥"-रत्नकर० श्रा०
अर्थात्-'मोहरूपी अन्धकारके दूर हो जाने पर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेके साथ ही साथ जिसे सच्चा ज्ञान भी प्राप्त हो गया है, वह साधु राग और द्वेषको दूर करनेके लिए चारित्रका पालन करता है। (इस पर यह शंका होती है कि चारित्र तो हिंसा वगैरह पापोसे बचने के लिए पाला जाता है न कि रागद्वेषकी निवृत्ति के लिए; क्योकि जैनधर्ममे अहिंसा ही आराध्य है। तो उसका समाधान करते है) राग और द्वेषके दूर हो जानेपर हिंसा वगैरह पाप तो स्वय ही दूर हो जाते हैं। क्योकि जिस मनुष्यको आजीविकाकी चिन्ता नही है वह राजाओंको सेवा करने क्यो जायेगा? अत. जिसे किसीसे राग और द्वेष ही नही रहा वह हिंसा वगैरहके कार्य करेगा ही क्यों?' ____ अत साधु वाहिरी समस्त वातोसे इतना उदासीन हो जाता है कि वह किसीकी ओर अपेक्षावृत्तिसे ध्यान ही नही देता । जैनधर्ममे साधुको अत्यन्त निरीह वृत्तिवाला और अत्यन्त संयत बतलाया है, तथा इसीलिए उसकी आवश्यकताएं अत्यन्त परिमित रखी गयी है । साधु होनेके लिए उसे सब वस्त्र उतारकर नग्न होना पडता है इसस एक ओर तो उसकी निर्विकारता स्पष्ट हो जाती है दूसरी ओर उस अपनी नग्नताको ढांकनके लिए किसीसे याचना नहीं करना पड़ती जो निर्विकार नहीं है वह कभी बुद्धिपूर्वक नग्न हो नहीं सकता। विकार को छिपानेके लिए ही मनुष्य लंगोटी लगाता है। और यदि लंगोर्ट फट जाये या खोई जाये तो उसे चलना फिरना कठिन हो जाता है
आवश्यकताएँ अन्य अत्यन्त संयत बतलाया
साधु होनेके लिए