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सामाजिक रूप
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द्राविड़ आदि संघोंके साधु जैनाभास ही रहे होंगे। इसीलिए दर्शनसारके रचयिताने भी उन्हे जैनाभास बतलाया है, अन्यथा जिस शिथिलाचारके कारण उन्होंने उक्त सघोको जैनाभास कहा है, वह शिथिलाचार मूलसंधी मुनियोमे भी किसी न किसी रूपमे प्रविष्ट हो गया था। वे भी मन्दिरोंकी मरम्मत आदिके लिये गाँव जमीन आदिका दान लेने। लगे थे। उपलब्ध शिलालेखोंसे यह स्पष्ट है कि मुनियों के अधिकारमें भी गाँव बगीचे रहते थे। वे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराते थे, दान। शालाएं बनवाते थे। एक तरहसे उनका रूप मठाधीशोके जैसा हो चला था। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उस समयमे शुद्धा चारी तपस्वी दिगम्बर मुनियोका सर्वथा अभाव हो गया था, अथवा सब उन्हीके अनुयायी वन गये थे। शास्त्रोक्त शुद्ध मार्गके पालनेवाले और उनको माननेवाले भी थे, तथा उसके विपरीत आचरण करनेवाले मठपतियोंकी आलोचना करनेवाले भी थे। पं० आशाघरजीने अपने अनगार धर्मामृतके दूसरे अध्यायमे इन मठपति साधुओंकी आलोचना करते हुए लिखा है-'द्रव्य जिन लिंगके धारी मठपति म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करते है। इनके साथ मन, वचन और कायसे कोई सम्बन्ध नही रखना चाहिये।'
ये मठाधीश साघु भी नग्न ही रहते थे, इनका बाह्यरूप दिगम्बर मुनियोंके जैसा ही होता था। इन्हीका विकसितरूप भट्टारक पद है.
तेरहपन्थ और बीसपन्थ । भट्टारकी युगके शिथिलाचारके विरुद्ध दिगम्बर सम्प्रदायमें ए. पन्थका उदय हुआ, जो तेरहपन्थ कहलाया। कहा जाता है कि . पन्थका उदय विक्रमकी सत्रहवी सदीमें पं० बनारसीदासजीके र आगरेमे हुआ था। जब यह पन्थ तेरह पन्यके नामसे प्रचलित होगया त भट्टारकोंका पुराना पन्य वीस पन्य कहलाने लगा। किन्तु ये नाम के पड़े यह अभी तक भी एक समस्या ही है। इसके सम्बन्धमे अनेक उप पत्तियाँ सुनी जाती है किन्तु उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता