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चारित्र
२१.
साघु जीवन बड़ा कठोर है। जो ससार, शरीर और भोगोकी असारता को हृदयगम कर चुक है, वे ही उसे अपना सकते हैं । सुखशील मनुष्योर्क, गुजर उसमें नही हो सकती। जैन साधुका जीवन बिताना सचमुच 'तल वारकी धार घावनो' है । आजकलके सुखशील लोगोंको साधु जीवन की यह कठोरता सम्भवत. सह्य न हो और वे इसे व्यर्थ समझें । किन्त उन्हें यह न भूल जाना चाहिये कि आजादी प्राप्त करना कितना कठिन,' है ? जिस देशपर विदेशी शक्ति प्रभुता जमा बैठती है, वहाँसे उर निकालना कितना कठिन होता है यह हम भुक्तभोगी भारतीयों छिपा नही । फिर अगणित भवोंसे जो कर्मवन्चन आत्मासे बँधे हु! है उनसे मुक्ति सरलतासे कैसे हो सकती है ? शरीर और इन्द्रिय आत्माके साथी नही है किन्तु उसको परतंत्र बनाये रखनेवाले कर्मोद' साथी है । जो उन्हें अपना समझकर उनके लालन-पालनकी चिन्त करता है वह कर्मोकी जंजीरोंको और दृढ़ करता है । इनक उपमा अंग्रेजी शासनके उन प्रबन्धकोंसे की जा सकती है जिने जनताकी जान-मालका रक्षक कहा जाता था किन्तु जो अवसा मिलते ही आँखे बदलकर भक्षक बन जाते थे । अतः अपना का निकालने भरके लिए ही इनकी अपेक्षा करनी चाहिये और काम निक जानेपर उन्हें मुँह नही लगाना चाहिये । यही दृष्टिकोण साघुकी चर्या रखा गया है। जैन सिद्धान्तका यह भी आशय नहीं है कि दुख उठान ही मुक्ति मिलती है । गुस्सेमे आकर स्वयं कष्ट उठाना या दूसरोक कष्ट देना बुरा है । किन्तु संसारकी वास्तविक स्थितिको जानकर उस अपनेको मुक्त करने के लिए मुक्तिके मार्गमे पैर रखनेपर दुखोकी २१ नही की जाती। जैसा कि लिखा है
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'न दुःख न सुख यद्वद् हेतुर्दृ ष्टश्चिकित्सिते । चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥ न दुःख न सुखं तद्वद् हेतुर्मोक्षस्य साधने । मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥' सवार्थ० ॥ अर्थात् -- जैसे रोगसे छुटकारा पानेमे न दुख ही कार