________________
Labe
जैनवर्म
दे उसे अत्यन्त आदरके साथ दोनों हाथोंसे लेना चाहिये और लेकर पुन. नमस्कार करना चाहिये । जिन्होने दीक्षा दी हो, जो पढ़ाते हों, प्रायश्चित देते हो और समाधि मरण कराते हों वे तव गुरु होते हैं।
- २१८
प्राण चले जानेपर भी साधुको दीनता नही दिखलाना चाहिये । भूख से शरीरका कृश बोर मलिन होना साघुके लिए भूषण है, पवित्र मनवाला साघु उससे लजाता नही है । जिसका मन शुद्ध है उसे ही गुद्ध कहा जाता है। मन गुद्धिके बिना स्नान करनेपर भी शुद्धि नही होती । साधुको चित्रमें अंकित भी स्त्रीका स्पर्ग नही करना चाहिये । जिनका स्मरण भी खतरनाक है उनको स्पर्श करना तो दूरकी बात है । साधुको रात्रिमे ऐसे स्थानपर नहीं सोना चाहिये जहाँ स्त्रियाँ रहती हों । न ताध्वियोंके साथ मार्गमें चलना ही चाहिये । तथा एकाकी साधुको किती एकाकी स्त्री के साथ न गपाप करनी चाहिये, न भोजन करना चाहिये और न बैठना ही चाहिये । जहाँ वास करने से साधुका मन चचल हो उस देशको छोड़ देना चाहिये । जो पाँचो प्रकारके वस्त्रसे रहित है वे ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं, अन्यथा सोना-चाँदी वगैरह कौन सा रखता है ?
परिग्रहको बुराइयाँ बतलाते हुए एक जैनाचार्यने ठीक ही लिखा है"परिग्रहवतां तां भयमवञ्यमापद्यते
प्रकोपपरिहितने च परुषानृतव्याहृती ।
ममत्वमय चोरतो स्वननतञ्च विभ्रान्तता
कुतोहि कलुषात्मनां परमद्युक्लवद्ध्यानता ॥४२॥” पात्रके ० स्तो० । 'परिग्रहवालोंको चोर आदिका भय अवश्य सताता है । चोरी हो जानेपर गुस्सा और मार डालनेके भाव होते हैं, कठोर और असत्य वचन बोलता है । ममत्व होनेसे मन भ्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में कलुपित आत्मावाले साधुओंको उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान कैसे हो सकता है।' अत. साधुको बिल्कुल अपरिग्रही होना चाहिये ।
ऊपर साबुको जो चर्या वतलायी है उससे स्पष्ट है कि जैनधर्ममें