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सिद्धान्त
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मिलती है उस आदर्शको वह प्राप्त नहीं कर सकता। क्योकि मूर्ति तो मनुष्यके उच्च आदर्शकी ओर संकेतमात्र करती है, केवल वही उसे उच्च आदर्श प्राप्त नहीं करा सकती। जैसे, जब बालक वर्णमाला सीखता है तो उसका हाथ साधनेके लिये पट्टीपर पेसिलसे वर्णमालाके आंवटे लिख दिये जाते है । बच्चा उन आंवटोपर ही अपनी कलम चलाता है। जबतक उसका हाथ नही सधता और वह इस योग्य नहीं हो जाता कि बिना आंवटोके भी स्वयं अक्षर लिख सके, तबतक उसे बरावर आंवटोंका सहारा लेना पडता है। किन्तु जब उसका हाथ सध जाता है तब आवटोंकी जरूरत नही रहती और वह बिना किसी सहारेके स्वय लिखने लग जाता है। उसी तरह मूर्तिके साहाय्यकी भी तभी तक जरूरत रहती है जब तक दर्शकका दृष्टिकोण अपने आदर्शकी ओर पूरी तरहसे नहीं होता। जब दर्शक अपने आदर्शकी ओर अग्रसर होकर उसीकी साधनामे लग जाता है, और इस तरह उस पथका साधक बन जाता है तब उसके लिये मूर्तिका दर्शन करना आवश्यक नहीं रहता। ___ अत. जैनोंकी मूर्तिपूजा उस आदर्शकी पूजा है जो प्राणिमात्रका सर्वोच्च लक्ष है। उसके द्वारा पूजकको अपने आदर्शका भान होता है, उसे वह भुला नहीं सकता। प्रतिदिन प्रात काल अन्य सब कार्य करनेसे पहले मन्दिरमे जाना इसीलिये अनिवार्य रखा गया है कि मनुष्य अर्थ और कामके पचड़ेमें पड़कर अपने उस सर्वोच्च लक्षको भूल न जाये। तथा जिन महापुरुषोने उस सर्वोच्च लक्षको प्राप्त कर लिया है उनका गुणानुवाद करके उनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर सके और शान्ति तथा विरागताके उस दर्पणमे अपनी कलुषित आत्माका प्रतिबिम्ब देखकर उसके परिमार्जन करनेका प्रयल करसके ।
ऐसे सर्वोच्च लक्षका भान करानेके लिये निर्मित जैन-मन्दिरोके बारेमे जब हम एक पुरानी उक्ति सुनते है
'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेद् जैनमन्दिरम्' ।