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जनधर्म चलकर उन्होने स्वयं मुक्तिलाम किया। उनके गुणानुवादका प्रयोजन उन्हें रिझाना या प्रसन्न करना नहीं है। वे तो राग-द्वेपकी इस घाटीसे बहुत दूर है। न वे किसीकी स्तुतिसे प्रसन्न होते है और न निन्दासे नाराज। किन्तु उनके गुणोंका कीर्तन करनेसे हमें अपने गुणोंका बोध होता है, क्योकि जो गुण उनमें है वही हममें भी है, किन्तु हम अपनेको भूले हुए है । अत उनका गुणानुवाद हमें अपनी स्मृति कराकर वुरे कामोसे बचाता है। कहा भी है
न पूजयार्थत्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे। तथापि तव पुण्यगुणस्मृतिनं. पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेय. ॥५७॥'
बृहत्त्वयं०॥ अर्थ--हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिये तुम्हें अपनी पूजासे कोई प्रयोजन नहीं है । और चूंकि तुम वीतद्वेष हो इसलिये निन्दासे भी कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी तुम्हारे पुण्य गुणोंकी स्मृति हमारे
अत. मालपी कालिमासे व मी तुम्हारे पुण्य गणालिये निन्दासे
अत. मूर्तिपूजाका उद्देश्य मूर्तिमे अकित भावोको अपनेमें लाकर जिसकी वह मूर्ति है उसके ही समान अपनेको वनाना है । अर्थात् जो जैसा होना चाहता है वह अपने सामने वैसा ही आदर्श रखता है। जैनधर्मका उद्देश्य आत्माको समस्त कर्मबन्वनोसे छुड़ाकर उसके असली स्वरूपकी प्राप्ति कराना है जिसे वह भूला हुआ है। अतः उसका आदर्श वे पुनीत आत्माएं है, जिन्होंने अपनेको वैसा बना लिया है। उन्ही आदर्शोकी मूर्ति स्थापना करके सच्चा जैन अपनेको वैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है। . प्रत्येक जैनमन्दिरमें शास्त्रभंडार भी रहता है, जिसमे जैनशास्त्रोंका संग्रह होता है। जो दर्शन या पूजनके लिये जाता है उसे दर्शन या पूजन कर चुकने के बाद शास्त्रस्वाध्याय भी अवश्य करनी होती है। क्योकि उन शास्त्रोंको जाने विना दर्शक या पूजक उन जैन तीर्थड्रोके -उपदेशों और उनके जीवनवृत्तोंको नही जान सकता जिनकी मूर्तिको वह पूजता है। और उनके जाने विना मूर्तिसे उसे जिस आदर्शकी शिक्षा