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सिद्धान्त शरीरको ही आत्मा माना और कभी भी आत्मरसका अनुभव नही किया।
है जिनेश ! तुमको न जानकर मैने जो क्लेश उठाये उन्हें तुम जानते हो। पशुगति, नरकगति और मनुष्यगतिमे जन्म ले लेकर मेह अनन्तवार मरा। अब काललब्धिके आ जानेसे—मुक्तिलाभका कालर समीप आ जानेसे तुम्हारे दर्शन पाकर में बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ। मेरा मन शान्त हो गया है। मेरे सब द्वन्द्व फन्द मिट गये है और मैने दुखोका। नाश करनेवाले आत्मरसका स्वाद चख लिया है। हे नाथ ! अब ऐसार करो कि तुम्हारे चरणोका साथ कभी न छूटे। (और इसके लिये) आत्माका अहित करनेवाले पांचों इन्द्रियोके विषयोमे और क्रोधादि, कपायोंमे मेरा मन कभी न रमे। मैं अपने आपमे ही मग्न रहूँ। भग । वन् ! ऐसा करो जिससे मै स्वाधीन हो जाऊँ। हे ईश । मुझे और कुछ चाह नहीं है, मुझे तोसम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्ररूपीरत्नत्रय चाहिये। मेरे कार्य के कारण आप है। मेरा मोहरूपी संताप हरकर मेरा कार्य करो। जैसे चन्द्रमा स्वयं ही शान्ति भी देता है और अन्धकारको भी हरता है, वैसे ही कल्याण करना तुम्हारा स्वभाव ही है। जैसे अमृतक पीनेसे रोग चला जाता है वैसे ही तुम्हारा अनुभवन, करनेसे ससाररूपी रोग नष्ट हो जाता है। तीनो लोको और तीनों, कालोमे तुम्हारे सिवा अन्य कोई आत्मिक सुखका दाता नही है । आज मेरे मनमें यह निश्चय हो गया है। तुम दुखोके समुद्रसे पारउतारनेके लिये जहाजके समान हो। __ इस स्तुतिसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति मनुष्यके चंचल चित्त को लगानेके लिये एक आलम्बन है। उस आलम्बनको पाकर मनुष्य चंचल चित्त क्षण भरके लिये उन महापुरुषोंके गुणानुवादमें रम जाता, है, जो किसी समय हमारी ही तरह संसार में भटक रहे थे। किन्तु उन्होने स्वयं अपने पैरोंपर खड़े होकर अपनेको पहचाना और आत्मला, करके दुनियाके कल्याणकी भावनासे उस मार्गको बतलाया जिसपर