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जैनधर्म
नम्राट् खारवेल जैन था और पांड्यनरेश भी जैन थे। पाडयवशने जैनधर्मको न केवल आश्रय ही दिया किन्तु उसके आचार और वचारोको भी अपनाया । इससे उनकी राजधानी मदुरा दक्षिण भारतमें जैनोका प्रमुख स्थान बन गई थी। तमिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्धमें कहा जाता है कि उत्तर भारतमे दुष्काल पड़नेपर आठ हजार जैन साधु पांड्यदेशमे आये थे। जव वे वहाँले वापिस जाने लगे तो पाडयनरेशने उन्हें वही रखना चाहा। तब उन्होने एक दिन रात्रिके समय पाड्यनरेशको राजधानीको छोड़ दिया केन्तु चलते समय प्रत्येक साधुने एक-एक ताड़पत्रपर एक-एक पद्य लखकर रख दिया। इन्हीके समुदायसे नालिदियर ग्रन्थ वना। जनाचार्य पूज्यपादके शिष्य वजनन्दिने पांड्योकी राजधानी मदुरामे एक विशाल जनसंघकी स्थापना की थी। तमिल साहित्यमे कुरल' नामका नीतिग्रन्थ सबसे बढ़कर समझा जाता है। यह मिलवेद कहलाता है। इसके रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते है,जिनका एक नाम कुन्दकुन्द भी था। पल्लववशी शिवस्कन्दवर्मा महाराज इनके शिष्य थे। ईसाकी दसवी शताब्दी तक राज्य करनेवाले महाप्रतापी पल्लव राजा भी जैनोंपर कृपादृष्टि रखते थे। इनकी राजधानी काची सभी धर्मोका स्थान थी। चीनी यात्री हुए नत्साग सातवी शताब्दीमे काची आया था। इसने इस नगरीमे फलते-फूलते हुए जिन धर्मोको देखा उनमें वह जैनोका भी नाम कता है। इससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि उस समय कांची जनोका मुख्य स्थान था। यहाँ जैन राजवशोने वहुत वर्षातक राज्य किया। इस तरह तमिल देशके प्रत्येक अगमें जैनोने महत्त्वपूर्ण भाग लिया । 'सर वाल्टर इलियटके मतानुसार दक्षिणको कला और कारीगरीपर जैनोका वडा प्रभाव है, परन्तु उससे भी अधिक , १. Cons of Southern India (London 1886)
पृ०३८,४०, १२६॥