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इतिहास
पाया जाता है। जैन तीर्थ रोने सदा लोकभाषाको अपने उपदेशक माध्यम बनाया | जैनसाघु जैनधर्मके चलते फिरते प्रचारक होते है वे जनता से अपनी शरीरयात्राके लिये दिनमे एक बार जो रूखा-सूख किन्तु शुद्ध भोजन लेते है उसका कई गुना मूल्य वे सत्शिक्षा औ सदुपदेशके रूपमे जनताको चुका देते है और शेष समय में साहित्यक सृजन करके उसे भावी सन्तानके लिये छोड़ जाते है । ऐसे कर्मट और जनहित- निरत साधुओका समागम जिस देशमें हो उस देशम उनके प्रचारका कुछ प्रभाव न हो यह संभव नही । फलतः उत्त भारतके जैनसंघकी दक्षिण यात्राने दक्षिण भारतके जीवनमे एव क्रान्ति पैदा कर दी । उसका साहित्य खूब समृद्ध हुआ और वह जैनाचार्योकी खनि तथा जैन संस्कृतिका संरक्षक और सवर्धक वन गया
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जैनधर्मके प्रसारको दृष्टिसे दक्षिण भारतको दो भागोमे बाँट' जा सकता है - तमिल तथा कर्नाटक । तमिल प्रान्तमें चोल और पांड्यनरेशोने जैनधर्मको अच्छा आश्रय दिया । खारवेल) शिलालेखसे पता चलता है कि सम्राट् खारवेलके राज्याभिषेकव अवसरपर पांड्यनरेशने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे
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१. प्रो० राम स्वामी आयंगर अपनी 'स्टडीज़ इन साउथ इण्डियन जैनिज्म पुस्तकमें लिखते हैं- 'सुशिक्षित जैन साधू छोटे-छोटे समूह बनाकर समस्त दक्षिण भारतमें फैल गये और दक्षिणकी भाषामोमें अपने धार्मिक साहित्यका निर्मा करके उसके द्वारा अपने धार्मिक विचारोंको धीरे-धीरे किन्तु स्थायी रूपर जनतामें फैलाने लगे । किन्तु यह कल्पना करना कि ये साधु साधारणतया लौकि कार्योंमें उदासीन रहते थे, गलत है। एक सीमातक यह सत्य है कि ये संसार ' सम्वद्ध नही होते थे । किन्तु मेगास्थनीज के विवरणसे, हम जानते है कि ईस्ट • पूर्व चतुर्थ शताव्दीतक राजा लोग अपने दूतोंके द्वारा बनवासी जैन श्रमण राजकीय मामलो में स्वतंत्रतापूर्वक सलाह-मशविरा करते थे । जैन गुरुमोन राज्य की स्थापना की थी, और वे राज्य गताब्दियों तक जैन वम के प्रति सहिष्णु बने रहे, किन्तु जैन धर्मग्रन्थोंमें रक्तपात क निपधपर जो अत्यधिक जोर दिया गया उस " कारण समस्त जैन जाति राजनैतिक अधोगतिको प्राप्त हो गई।" पृ० १०५ - १०६
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