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चारित्र
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बाँधकर दुनियासे चल बसते है । इसीलिये वैषयिक सुखकी खोज इतनी निन्दनीय है । दूसरे, प्रवृत्तिमे एक बड़ा भारी दोप यह है कि प्रवृत्ति 4 मात्र ही सहजमे असंयत हो उठती है और उचित सीमाको लांघकर कार्य करने लगती है । इसीसे प्रवृत्तिके दमनपर इतना जोर दिया गया छ है मोर प्रवृत्तिको विश्वस्त पथ-प्रदर्शक नही माना जाता । इसीलिये दूरदर्शी धर्मोपदेष्टाओने प्रवृत्ति-मूलक कार्यकी अपेक्षा निवृत्तिमूलक कार्यकी ही अधिक प्रशंसा की है । और निवृत्तिमार्गको ही ग्रहण च करनेका उपदेश दिया है ।
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अनेक लोग सोच सकते है कि प्रवृत्ति मनुष्यको यथार्थकर्मा बनाकर जगतका हित करनेमे लगाती है और निवृत्ति मनुष्यको निष्कर्माल बनाकर जगतका हित करनेसे रोकती है । किन्तु यह बात ठीक नही र है । यह सच है कि निवृत्तिमार्गकी अपेक्षा प्रवृत्तिमार्ग आकर्षक है । है f पर उसका कारण यह है कि प्रवृत्तिमार्गंसे जिस सुखकी खोज की जाती है वह क्षणिक होनेपर भी सहज लभ्य और सहजभोग्य है । उरह निवृत्तिमार्ग से जिस सुखको खोजा जाता है वह नित्य होनेपर भी अतिदूर है और सयतचित्त हुए बिना कोई उसे भोग नही सकता । अत. निवृत्तिमार्ग यद्यपि आकर्षक नही है तथापि एक बार जो उसपर पग रख देता है वह बराबर चलता रहता है, क्योकि उस मार्ग पर चलने से। ' जो सुख प्राप्त होता है वह नित्य है और उसको भोगनेकी शक्तिका कभी हास नही होता । इसके विपरीत प्रवृत्तिमार्ग से जो सुख प्राप्त होता है उस सुखके लिये जिन भोग्य सामग्रियोकी आवश्यकता है वे सव अस्थायी है और उस सुखको भोगनेके लिये हममे जो शक्ति ने वह भी क्षय होनेवाली है । दूसरे, प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर जो कार्य किय जाता है उसके अन्त तक चालू रहनेमे बहुत कुछ शका रहती है, क्योकि कर्ता किसी लौकिक इच्छासे ही उसमें प्रवृत्त होता है । किन्तु निवृत्तिमार्गपर चलनेवालेके विषयमे यह शका नही रहती, क्योकि वह अपने सुख - लाभपर दृष्टि न रखकर कार्य करनेमे ही रत रहता है । शायद