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जनवम कोई कहे कि प्रवृत्तिमार्गी लोगोने ही परिश्रम करके अनेक प्रकारके विषय-सूखके उपायोका आविष्कार करके मनुष्यजातिका महान् हित किया है और निवृत्तिमागियोने कुछ नहीं किया। तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उन सब सुखसाधनोके रहते हुए भी जब कोई आदमी दुस्सह शोकसागरमें निमग्न होता है, या निराशाके गतम पड़ा होता है या असाध्य रोगसे पीडित होता है तो निवत्तिमागियोंके जीवनक उज्ज्वल दृष्टान्त ही उसको धीरज बंधाते है, और उनके अनुभवपूर्ण उपदेशोंके द्वारा ही उसे सच्ची शान्तिका लाभ होता है। अत जो सच्चे सुख और शान्तिको खोजमें है उन्हें कुछ-कुछ निवृत्तिमार्गी भी होना चाहिये और प्रवृत्तिमार्गपर चलते हुए भी अपनी दृष्टि निवृत्तिमार्गपर ही रखनी चाहिये।
कोई कह सकते है कि इस तरह यदि सभी नितिमार्गी हो जायग तो दुनियाका काम कैसे चलेगा? किन्तु ऐसा सोचनेकी जरूरत नहीं है क्योकि हमारी स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों इतनी प्रवलं है कि निवृत्तिक अभ्याससे उनकी जड़ उखड़नकी संभावना नहीं है। उससे इतना ही हो सकता है कि वे कुछ शान्त हो जायें, किन्तु इससे हमे और जगतका लाम ही पहुंचेगा, हानि नहीं। मत चारित्रके दो रूप हे एक प्रवृत्ति'मूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । इन दोनों ही चारित्रोंका प्राण है अहिंसा, और उसके रक्षक है, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
४. अहिंसा
___जनचारका प्राण हि अहिंसा ही परमधर्म है। अहिंसा ही परमब्रह्म है । अहिता हो सुख शान्ति देनेवाली है, अहिंसा ही संसारका नाण करनेवाली है। सही मानवका सच्चा धर्म है, यही मानवका सच्चा कर्म है । यही वीरोका सच्चा बाना है, यही धोरोंकी प्रवल निशानी है। इसके बिना न मानवको शोभाहै न उसकी शान है। मानव और दानवमें केवल मोहता और हिंसाका ही तो अन्तर है। अहिंसा मानवी है और हिंसा दानवी ही