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चारित्र
१५६ जवसे मानवने अहिंसाको भुला दिया तभीसे वह दानव होता जाता है
और उसकी दानवताका अभिशाप इस विश्वको भोगना पड रहा है । फिर भी मानव इस सत्यको नहीं समझता। किन्तु वह दिन दूर नहीं है जव मानवससार उसे समझेगा, क्योंकि उसके कष्टोका दूसरा इलाज ही नही है।
ससार सुख शान्ति चाहता है, इसका मतलब है कि ससारमे निवास करनेवाला प्रत्येक प्राणी सुखशान्तिका इच्छुक है। कोई मरना नहीं चाहता। दुखीसे दुखी प्राणी भी जीवित रहनेकी चाह रखता है। सबको अपना जीवन प्रिय ही नहीं, बल्कि अतिप्रिय है। ऐसी अति प्यारी चीजको जो नष्ट कर डालता है वह हिंसक है, दानव है, पातकी है। और जो उसकी रक्षा करता है, अपने प्राणोका बलिदान करके
भी त्रस्तोंको बचाता है, उन्हें जीवनदान देता है, वह अहिंसक है 1 और वही सच्चा मानव है। इस मानवताका मूल्य वही आंक सकता है, जिसके प्राणोपर कभी सकट आया है । जो केवल मारना जानते है, सताना जानते है, उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है ?
कहावत प्रसिद्ध है-'जाके पैर नहिं फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई' जिसके जीवनपर कभी दुखकी घटा नही घहराई, कभी किसी आततायीकी तलवार नही पडी, वह क्या जान सकता है कि दूसरोंको मारनेमे या सतानेमे क्या दुख है ? काश यदि मानवने अपने जीवनपर बीती दुखद घटनाओसे शिक्षा ली होती तो आज मानव मानवके खूनका प्यासा न होता। किन्तु मानव इतना स्वार्थी है या उसकी स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल है, कि वह स्वयं तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोके जीवनकी कतई परवाह नहीं करता। उसकी दशा नशेमे मस्त उस मोटरचालककी सी है जो सरपट मोटर दौड़ाते हुए यह भूल जाता है कि जिस सडकपर में मोटर चला रहा हूँ। उसपर कुछ अन्य प्राणी भी चल रहे है, जो मेरी मोटरसे दबकर मर सकते है । उसे अपने जीवनकी व अपने सुख चैनकी तो चिन्ता है