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जैनधर्म
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तियोकी पूजा हिन्दू पुरोहित या ब्राह्मण करते है । वे भैरवके नामसे कारी जाती है, और नीच या शूद्र जातिके लोग वहाँ पशुबलि भी करते है । इन सब मूर्तियो के नीचे अब भी जैनलेख मिल जाते है । इस प्रकारकी एक लेखयुक्त मूर्ति स्व० राखलदास बनर्जी पंचकोटके महाराजाके यहाँसे ले गये थे ।
शान्तिनिकेतनके आचार्य क्षितिमोहनसेन' लिखते है
'परीक्षा करनेसे बंगालके धर्ममें, आचारमें और व्रतमे जैनवर्मका भाव दृष्टिगोचर होता है। जैनोके अनेक शब्द बंगालमें प्रचलित है । प्राचीन वगाली लिपिके बहुतसे गन्द विशेष तोरसे युक्ताक्षर देवनागरी के साथ नही मिलते, परन्तु प्राचीन जैनलिपिसे मेल खाते हैं ।' ४ गुजरात में जैनधर्म
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'गुजरातके साथ जैनधर्मका सम्वन्ध बहुत प्राचीन है । २२ बें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथने यहीके गिरनार पर्वत पर जिनदीक्षा लेकर मुक्तिलाभ किया था । यहाँकी ही वल्मी नगरीमें वीर निर्वाण उम्वत् 883 में एकत्र हुए खेताम्बर संघने अपने आगमग्रन्थोको व्यवस्थित करके उनको लिपिबद्ध किया था। जैसे दक्षिण भारतमे "दगम्बर जैनोका प्राबल्य रहा है, लगभग वसे ही गुजरातमे श्वेतास्वर जैनोंका प्राबल्य रहा है ।
गुजरातमे भी अनेक राजवश जैनधर्मावलम्बी हुए है । राष्टकूटोका राज्य भी गुजरातमें रहा है। गुजरातके संजान स्थानसे प्राप्त एक शिलालेख में अमोघवर्ष प्रथमकी प्रशंसा की गई है तथा "अमोघवर्षके गुरु श्री जिनसेनने अपनी जयधवला टीकाकी प्रशस्तिमे
१. विश्ववाणीका जैन सस्कृति अंक, पू० २०४ |
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२. Architecture of Ahamdabad में लिखा है कि-- यह मालूम नहीं कि जैनधर्म गुजरात में पैदा हुआ या कहोंते नाया, किन्तु जहाँतक इमारा ज्ञान जाता है यह प्रान्त इस धर्मका बहुत उपयोगी वर व मुल्य ध्यान रहा है ।'
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