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चारित्र
'जले जन्तु स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च।
जन्तुमालाकुले लोके कय भिक्षुरहिंसक ॥' 'जलमे जतु है, स्थलमे जतु है और आकाशमे भी जतु है। इस तरह जव समस्त लोक जन्तुओसे भरा हुआ है तो कोई मुनि कैसे अहिंसक, हो सकता है ? इस गंका का उत्तर इस प्रकार दिया है
'सूक्ष्मा न प्रतिपीडयन्त प्राणिन. स्थूलमूर्तय ।
ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा सयतात्मन. ॥' । 'जीव दो प्रकारके है सूक्ष्म और वादर यास्थूल। जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते है और न तो किसीसे रुकते है और न किसीको रोकते है, उन्हे तो कोई पीडादी ही नही जा सकती। रहे स्थूल जीव,। उनमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है। अतः जिसने, अपनेको संयत कर लिया है उसे हिंसाका पाप कैसे लग सकता है?'
इससे स्पष्ट है कि जो मनुष्य जीवोकी हिंसा करनेके भाव नही रखता बल्कि उनके बचानके भाव रखता है और अपना प्रत्येक काम ऐसी सावधानीसे करता है कि उससे किसीको भी कष्ट न पहुंच सके। उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा हो जाती है उसका पाप उसे नहीं लगता। अतः जैनधर्मकी अहिंसा भावोके ऊपर निर्भर है और इसलिये कोई । भी समझदार उसे अव्यवहार्य नहीं कह सकता। मनुष्यसे यह आशा । की जाती है कि वह अपने स्वार्थके पीछे किसी भी अन्य जीवको सताने-1 के भाव चित्तमे न आने दे और अपना जीवन निर्वाह इस तरीकेसे करे कि उससे कमसे कम जीवोका कमसे कम अहित होता हो। जो मनुष्य इस तरहकी सावधानी रखता है वह अहिंसक है।
अहिंसाको व्यवहार्य बनानेके लिये जैसे हिंसाके द्रव्यहिंसा और । भावहिंसा भेद किये गये है, वैसे ही अहिंसाके भी अनेक भेद किये। गये हैं। सबसे प्रथम तो गृहस्थ और साधुकी अपेक्षासे अहिंसा दो भागोमे वाँट दी गई है। गृहस्थकी अहिंसाकी सीमा जुदी है और साधुकी अहिंसाकी सीमा जुदी है । जो एकके लिये व्यवहार्य है वही दूसरेके लिये