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जैनधर्म
अव्यवहार्य है, क्योकि दोनोंके पद और उत्तरदायित्व विभिन्न है । दूसरे, गृहस्थकी दृष्टिसे भी उसके अनेक प्रभेद किये गये है। यदि उन पीमाओ और भेद प्रभेदोको भी दृष्टिमे रखकर जैनी अहिंसाको देखा जाये तो हमे विश्वास है कि उसपर अव्यावहारिकताका दोषारोपण नही किया जा सकेगा।
गृहस्थकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी मौर विरोधी । बिना अपराधके जान बूझकर किसी जीवका वध करनेको संकल्पी हिंसा कहते है । जैसे, कसाई पशुवध करता है । जीवन निर्वाहके लिये व्यापार खेती आदि करने, कल कारखाने चलान स्था सेनामें नौकर होकर युद्ध करने आदिमे जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते है। सावधानी रखते हुए भी भोजन आदि इनानेमे जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी हिंसा कहते है । और प्रपनी या दूसरोंकी रक्षाके लिये जो हिंसा करनी पडती है उसे विरोधी हंसा कहते है। ___जैनधर्ममें सव संसारी जीवोको दो भेदोमे बांटा गया है एक स्थावर और दूसरा त्रस। जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीडे, मकोई आदिक अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय और वनस्पतिमें भी जीव है। मिट्टीमे कीड़े आदि जीव तो है ही, परन्तु मिट्टीका ढेला स्वय पृथ्वीकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है। इसी तरह जलविन्दुमें यत्रोक द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोके अतिरिक्त वह स्वय जलकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है। ऐसे ही अग्नि आदिके सम्बन्धमे भी समझना चाहिये । इन जीवोको स्थावर जीव कहते है। और जो जीव चलतं फिरते दिखाई देते है, जैसे मनुष्य, पश, पक्षी, कीडे, मकोडे वगैरह, वे सब स कहे जाते है । इन दोनों प्रकारके जीवोंमेंसे गृहस्थ स्थावर जीवोकी रक्षाका तो यथाशक्ति प्रयत्न करता है, और विना जरूरत न पृथ्वी खोदता है, न जलको खराव करता है, न आग जलाता है।