________________
120
जैनधर्म
ही होती, जिनके फलस्वरूप हमें वह सुख दुःख भोगना पड़ता है । रन्तु किसी प्रवन्धकर्ता के माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नही ठती, वल्कि उल्टा अन्धेर ही दृष्टिगोचर होने लगता है। यदि हम ह मानते हैं कि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या वेश्या नादि पियो के घर पैदा किया गया है वह अपने भले बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ऐसे स्थानमें पैदा किया गया है तो सर्वशक्तिमान् दयाल परमेश्वरको विकर्ता माननेको अवस्थामें यह बात ठीक नही बैठती; क्योकि
रावी शराब पीकर और उसका बुरा फल भोगकर भी यदि शराबकी कानपर जाता है और पहले से भी तेज शराव मांगता है तो वस्तु
भाव के अनुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि शरावने उसका दमाग ऐसा खराब कर दिया है जिससे अव उसको पहले से भी ज्यादा ज शराब पीनेकी इच्छा होती है । परन्तु जगतके प्रवन्धकर्ता के द्वारा फल मिलनेकी अवस्थामे तो शराब पीनेका ऐसा दड मिलना चाहिये जिससे वह गरावकी दुकानतक पहुँच ही नही सकता या फिर कभी उसका नाम ही नही लेता। इसी तरह व्यभिचार और चोरी आदिको
ऐसी सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे वह कभी भी व्यभिचार चोरी करने नही पाता। जो जीव चोरों या वेश्याओंके घर पैदा केये जाते है उन्हें ऐसी जगह पैदा करना तो चोरी और व्यभिचारकी शक्षा दिलानेका ही प्रयत्न करना है । सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वररे तो ऐसी आशा कभी भी नही की जा सकती।
ऐसी बातें देखकर यही मानना पड़ता है कि संसारका कोई भी एक बुद्धिमान् प्रवन्धकर्ता नही है । वल्कि वस्तु स्वभावके द्वारा और उसीके अनुसार ही जगतका तव प्रवन्ध चल रहा है । खेद है कि मनुष्योने वस्तु स्वभावको न समझकर ससारका एक प्रवन्धकर्ता मान लिया है। पृथ्वीपर राजाको मनुष्योके बीच में प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही मान लिया है । जित प्रकार राजा लोग खुशामद और स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करने