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सिद्धान्त
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वालोंके वशमें हो जाते है और उनकी इच्छाके अनुसार ही कार्य करने लग जाते है उसी प्रकार दुनियाके लोगोने भी संसारके प्रवन्धकर्ताको खुशामद या स्तुतिसे प्रसन्न होनेवाला मानकर उसकी भी खुशामद करना शुरू कर दिया है और अपने आचरणोंको सुधारना छोड बैठे है। इसी वजहसे ससारमे पापोंकी वृद्धि होती जाती है। जब मनुष्य इस भ्रामक विचारको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जायेगे, तभी उनके चित्तमे यह विचार जड पकड सकता है कि जिस प्रकार आँखोमे मिर्च और धावपर नमक डाल देनेसे दर्दका होना आवश्यक है वह दर्द किसीकी खुशामद या स्तुतिसे दूर नही हो सकता, जबतक कि मिर्च या नमकका असर दूर न कर दिया जाये । उस ही प्रकार जैसा हमारा आचरण होगा वैसा ही उसका फल भी हमे अवश्य भोगना पडेगा। किसीकी खुशामद या स्तुतिसे उसे टाला नहीं जा सकता। 'जैसी करनी वैसी भरनी' के सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जानेपर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच सकता है
और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता है। परन्तु जब तक मनुष्यको यह ख्याल बना रहेगा कि खुशामद करने, केवल स्तुतियाँ पढने या भेट चढाने आदिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते है तबतक वह बुरे कामोसे नही बच सकता और न अच्छे कामोंकी तरफ लग सकता है। अत संसारके लोगोंको चाहिये कि वे वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तपर विश्वास लावे, अपने अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके लिये सदा तैयार रहे और किसीकी खुशामद या स्तुति करनेसे उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असंभव समझे। ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा, वे अपने पैरोंपर खडे होकर अपने आचरणोंको ठीक बनानेका प्रयत्न करेंगे और तभी दुनियासे सब पाप और अन्याय दूर हो सकेगे। नहीं तो, किसी प्रवन्धकर्ताको माननेकी अवस्थामे हृदयमे अनेक भ्रम उत्पन्न होते रहेगे और दुनियाके लोग पापोकी तरफ ही झुकते रहेगे। जैसे, कोई एक तो यह सोचेगा कि यदि उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरको मुझसे पाप कराना मंजूर नहीं होता