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जैनधर्म रोककर अपने निमित्त वनाये हुए भोजनमेंसे भक्तिपूर्वक भोजन कराना चाहिये। पीछे स्वय भोजन करना चाहिये। ___ इस तरह श्रावकके ये सात गील व्रत कहलाते है। इनमसे पहलेके तीन गुणवत कहे जाते है, क्योकि उनके पालन करनेसे पहले कहे गये पांच अणुव्रतोमे विशेषता आती है, और पीछेके चार शिक्षावत कहलाते है क्योकि उनके करनेसे मनिधर्म ग्रहण करनेकी शिक्षा मिलती है। शिक्षा अर्थात् अभ्यासके लिये जो व्रत किये जाते है वे शिक्षाव्रत कहे जाते है।
३ सामायिकी-व्रत प्रतिमाका अभ्यासी जो श्रावक तीनो सन्च्याओंमे सामायिक करता है और कठिन से कठिन कष्ट आ पड़नपर भी अपने ध्यानसे विचलित नहीं होता-मन, वचन और कायकी एकाग्रताको स्थिर रखता है उसे सामायिकी या सामायिक प्रतिमावाला श्रावक कहते है। यद्यपि श्रावकके लिये ऐसी एकाग्रता अति कष्टसाध्य है किन्तु अभ्याससे सव संभव होता है। इसका उद्देश्य आत्माकी शक्तिको केन्द्रीभूत करना है। यद्यपि पहले व्रतोंमें भी सामायिक करना वतलाया है किन्तु वह अभ्यासरूप है और यह व्रतरूप है।
४ प्रोषधोपवासी-पहले प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करनेकी विधि वतलाई है, वही यहाँ भी जानना चाहिये । अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ अभ्यासल्पसे उपवासका विधान है और यहाँ व्रतरूपसे।
५ सचित्तविरत-पहलेकी चार प्रतिमाओंका पालन करनेवाला जो दयालु श्रावक हरे साग, सब्जी, फल-फूल वगैरहको नहीं खाता है उसे सचित्तविरत कहते है। असलमे त्यागका उद्देश्य सयमका पालन करना है । और संयमके दो रूप है-एक प्राणिसंयम और दूसरा इन्द्रिय-संयम । प्राणियोंकी रक्षा करनेको प्राणिसयम कहते है
और इन्द्रियोंको वशमें करनेको इन्द्रियसयम कहते है । उत्तम तो यही है कि प्रत्येक त्यागमें दोनों सयमोंका पालन हो, किन्तु यदि दोनोंका