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सिद्धान्त
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इस प्रकार जैन दृष्टिसे जीव जानने देखनेवाला, अमूर्तिक, कर्ता भोक्ता, शरीर परिमाणवाला और अपने उत्थान और पतनके लि स्वयं उत्तरदायी है ।
जीवके भेद
च
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उस जीवके मूल भेद दो है-ससारी जीव और मुक्त जीव कर्मबन्धनसे वद्ध जो जीव एक गतिसे दूसरी गतिमे जन्म लेते और - मरते है वे ससारी है और जो उससे छूट चुके है वे मुक्त है। मुक्त जीवो तो कोई भेद होता ही नहीं, सभी समान गुणधर्मवाले हो " है । किन्तु संसारी जीवोमे अनेक भेद प्रभेद पाये जाते है । ससार जीव चार प्रकारके होते हैं, नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव /ल इस पृथिवीके नीचे सात नरक है, उनमे जो जीव निवास करते ह वे नारकी है । ऊपर स्वर्गोमे जो निवास करते हैं वे देव कहाते है है हम आप सब मनुष्य है और पशु, पक्षी, कीड़े मकोडे, वृक्ष आदि सव तिर्यञ्च कहे जाते है । नारकी, देव और मनुप्योके तो पांचर ज्ञानेन्द्रियाँ होती है, किन्तु तिर्यञ्चोमें ऐसा नही है । पृथ्वीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोव केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उसीके द्वारा वे जानते हैं । इन् जीवोंको स्थावर कहते है । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी कीडे, मकोड़े आदिके सिवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति" भी जीव है। मिट्टी में कीड़े आदि जीव तो है ही, किन्तु मिट्टी पहा आदि स्वयं पृथ्वीकायिक जीवोके शरीरका पिण्ड है । इसी तर जलमे यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोके अतिरिक्त ज स्वय जलकायिक जीवोके शरीरका पिण्ड है । यही बात अग्निकार आदिके विपयमे भी जाननी चाहिये । लट आदि जीवोके स्पर्शन औ रसना ये दो इन्द्रियाँ होती है । चीटी वगैरहके स्पर्शन, रसना मो घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती है । भोरे आदिके स्पर्शन, रसना, घा और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती है और सर्प, नेवला, पशु, पक्षी आदिव