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________________ विविध प्रचार साधारण जनतामे किया जाने लगा। भगवान पार्श्वनाथने ७० वर्षतक स्थान स्थानपर विहार करके जनसाधारणमें धर्मोपदेश दिया। इसीका अनुसरण महावीर तथा बुद्धने अवान्तरकालमें किया। अपने आध्यात्मिक विचारोंको व्यावहारिक रूप देनेकी तथा अपने विचारोंके अनुरूप जीवन यापन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर भी इसी युगमें विशेष लक्ष्य दिया गया क्योंकि उक्त महापुरुषोने ऐसा ही किया था। वैदिक युगमें इन्द्र वरुण आदिको ही देवताके रूपमे पूजा जाता था, / किन्तु उक्त धर्मोंमे मनुष्यको उन्नत बनाकर उसमे देवत्वकी प्रतिष्ठा, करके उसकी पूजा की जाती थी। विरोधियोंके इन सिद्धान्तोंने वैदिक धर्मकी स्थितिको एकदम डांवाडोल कर दिया था। उसको कायम । रखनेके लिये फिर कुछ नई बातोको अपनानेकी वैसी ही आवश्यकता: प्रतीत हुई जैसी आवश्यकता उपनिषदोंकी रचना होनेसे पूर्व प्रतीत हुई, । थी। इसी कालमे रामायण और महाभारतका उदय हुआ, और राम १ सर राधाकृष्णन् लिखते है-"जब जनताकी आध्यात्मिक चेतना उपनिपदोंके कमजोर विचारसे, या वेदोंके दिखावटी देवताओंसे तथा जैनो और बौद्धोंके ।। नैतिक सिद्धान्तोंके सदिग्ध आदर्शवादसे सन्तुष्ट नहीं हो सकी तो पुननिर्माणने एक धर्मको जन्म दिया, जो उतना नियम-बद्ध नहीं था तथा उपनिषदोंके धर्मसे अधिक सन्तोष प्रद था। उसने एक सदिग्ध और शुष्क ईश्वरके बदलेमें एक जीवित . मानवीय परमात्मा दिया। भगवद्गीता, जिसमें कृष्ण विष्णुके अवतार तथा , उपनिषदोंके परब्रह्म माने गये है, पचरात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वतर तथा बादके अन्य उपनिषदोका शवधर्म इसी धार्मिक क्रान्तिके फल है ।"-इ० फि० पृ०॥ २७५-७६ । दीवानबहादुर कृष्ण स्वामी आयगरने भी इसी तरहके विचार प्रकट किये है। वे लिखते है-'उस समय एक ऐसे धर्मकी आवश्यकता थी जो. । ब्राह्मणवर्मके इस पुनर्निर्माणकालमें बौद्धधर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिकी आवश्यकता थों। -एन्शियट इण्डिया, पृ० ५८८ । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० मोझाजीने भी लिखा है-"वौद्ध और जैनधर्मके प्रचारसे वैदिकधर्मको बहुत हानि पहंची। इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा। और वह नये सापेमें ढलकर पौराणिक धर्म बन गया । उसमें वौद्ध
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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