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जैनधर्म स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और जब दिन अस्त होनेमें दो घडी काल वाकी रहे तो समाप्त कर देना चाहिये। फिर दो घडी रात वीत जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये। और आधी रात होनेसे दो घडी पहले समाप्त कर देना चाहिये। फिर आधी रात होनेके दो घडी वादसे स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और रातका अन्त होने में दो घड़ी वाकी रहनेपर समाप्त कर देना चाहिये।
साथफो दिनचर्या साधुको चाहिये कि मध्य रात्रिमें ४ घड़ीतक निद्रा लेकर, थकान दूर करके, स्वाध्याय प्रारम्भ करे और जव रात बीतनेमें दो घडी काल शेष रह जाय तो स्वाध्याय समाप्त करके प्रतिक्रमण करे। खूव अभ्यस्त योगी भी क्षणभरके प्रमादसे समाधिच्युत हो जाता है। अत साधुको सदा अप्रमादी रहना चाहिये। तीनों संध्याओमे जिनदेवकी वन्दना करनी चाहिये और चित्तको स्थिर करनेके लिए उनके गुणोका चिन्तन करना चाहिये । कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमलमे प्राणवायुके साथ मनका नियमन करके णमो अरहताण णमोसिद्धाण का ध्यान करना चाहिये। फिर धीरे धीरे वायुको निकाल देना चाहिये। फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाण' का ध्यान करना चाहिये और वायुको धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिये। फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर णमो लोए सव्वसाहूण' का ध्यान करना चाहिये और वायुको धीरे-धीरे वाहर निकालना चाहिये। इस प्रकार नौ वार करनेसे चिरसचित पाप नष्ट होते है। जो साधु प्राण-वायुको नियमन कर सकनमें समर्थन हो वे वचनके द्वारा ही ऊपर लिखे गये पांच नमस्कार मत्रोका जप कर सकते है। यह पंच नमस्कार मंत्र समस्त विघ्नोको नष्ट करनेवाला और सव मङ्गलोंमें मुख्य मंगल माना गया है। कायोत्सर्गके पश्चात् स्तुति वन्दना आदि करके आत्माका ध्यान करना चाहिये, क्योकि आत्मध्यानके विना मुमुक्षु साधुकी कोई भी क्रिया मोक्षसाधक नहीं होती।