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सामाजिक रूप
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उधर श्वेताम्बर' भी कहते है कि छठे स्थविर भद्रबाहुके समयमे अर्द्धस्फालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। इनमेसे ई० स० ८० मे दिगम्बरोका उद्भव हुआ जो मूलसघ कहलाया।
इससे भी इस सम्प्रदायका अस्तित्व सिद्ध होता है। अब रह जाता है यह प्रश्न कि अर्द्धस्फालक श्वेताम्बरोके पूर्वज है या दिगम्बरोके इसका समाधान भी मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे ही हो जाता है। वहाँके एक शिलापट्टमे भगवान् महावीरके गर्भपरिवर्तनका दृश्य अंकित है और उत्तीके पास एक छोटी-सी मूर्ति ऐसे दिगम्बर साधुकी है जिसकी कलाईपर खण्ड वस्त्र लटकता है। गर्भापहार श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है अत स्पष्ट है कि उसके पास अकित साधुका रूप भी उसी सम्प्रदायमान्य है।
उपसंहार सारांश यह है कि मुख्यरूपसे जैनधर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शाखाओमें विभाजित हुआ। पीछेसे प्रत्येकमे अनेक गच्छ, उपशाखा और उपसम्प्रदाय आदि उत्पन्न हुए। फिर भी सब महावीर भगवान्की सन्तान है और एक वीतराग देवके ही माननेवाले है।
१ 'जैन सस्कृतिका प्राणस्थल, 'विश्ववाणी' सितम्बर १९४२ ।