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________________ १२८ जैनधर्म लदे हुए व्यक्ति मखके एक इगितमात्रसे अथवा अपने नखरे के थोड़ेसे इशारेसे मनुष्यको अस्वस्थ कर देते है, नीचे गिरा देते हैं । मत हमारी नग्नताविषयक दृष्टि और हमारा विकारोकी ओर झुकाव दोनों बदलने चाहिये । हम विकारोंका पोषण करते जाते है और विवेक रखना चाहते है ।" काका साहबके इन उद्गारोंके बाद नग्नताके सम्बन्धमे कुछ कहना शेष नही रहता । अत. जैनमूर्तियोकी नग्नताको लेकर जैनधर्मके सम्वन्धमे जो अनेक प्रकारके अपवाद फैलाये गये है वे सब साम्प्रदायिक प्रद्वेषजन्य गलतफहमी के ही परिणाम है। जैनधर्म वीतरागताका 'उपासक है । जहाँ विकार है, राग है, कामुकप्रवृत्ति है, वही नग्नताको छिपानेकी प्रवृत्ति पाई जाती है। निर्विकारके लिये उसकी 'आवश्यकता नही है । इसी भावसे जैनमूर्तियाँ नग्न होती है । उनके मुखपर सौम्यता और विरागता रहती है । उनके दर्शनसे विकार भागता है न कि उत्पन्न होता है । अत जैनमन्दिरोंमें न जानेकी जनश्रुति भी एक मिथ्या प्रवाद है । जनमन्दिर शान्ति और भव्यताके प्रतीक होते है। उनमें जानेसे मनुष्यका मन पवित्र होता है। निर्विकार मूर्ति तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण प्राचीन शास्त्र और उपयोगी चित्रकारी यही वहाँकी प्रवान वस्तुएँ है, जिनके दर्शन और अध्ययनसे मनुष्य के मनको शान्ति मिलती है । ९ सात तत्त्व यद्यपि द्रव्य है तथापि धर्मका सम्वन्ध केवल एक जीवद्रव्यसे है, क्योंकि उसीको दुखोसे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त कराने के लिये ही धर्मका उपदेश दिया गया है । और दुखोका मूलकारण उसी जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म है, जो कि 'अजीव और अजीवोंमे MY मी पौद्गलिक है । अत जब धर्मका लक्ष्य जीवको सब दुखोसे छुड़ाकर उत्तम नुस प्राप्त कराना है और दुखोंका मूलकारण जीवके द्वारा
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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