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जैनधर्म 'देसकर कलाके पारखी मुग्ध हो जाते है। दक्षिणमें जहां बोद्ध धर्मक स्थापत्यके इन गिने अवशेष है वहां जैन धर्मके प्राचीन स्थापत्यक बहुतसे उदाहरण आज भी उपलब्ध है। इनमें प्रमुख है एलोराकी इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा। सभवत. इनकी सुदाई चालुक्योंकी वादामी शाखा या राष्टकटोक तत्त्वावधानमें हुई होगी, क्योकि वादामीमें भी इसी । तरहकी एक जैन गुफा है जो सातवी गतीकी मानी जाती है।
दक्षिणमें जैन मन्दिरों और मूर्तियोकी बहुतायत है। श्रवण'बेलगोला (मैसूर) में गोमट्टस्वामीकी प्रसिद्ध जैन मूर्ति है जो स्थापत्य कलाकी दृष्टिले अपूर्व है। वहाँ अनेक जैन मन्दिर है जो वेडियन शैलीके है। कनाडा जिलेमें अथवा तुल प्रदेशमें जैन मन्दिरोकी बहुतायत है किन्तु उनकी शैलीन दक्षिण भारतकी द्रडियन शैलीसे ही मिलती ह और न उत्तर भारतकी शैलीसे। मुडविद्रीके मन्दिरोंमें लकड़ीका उपयोग अधिक पाया जाता है और उसकी नक्काशी दर्शनीय है। साराग 'यह कि भारतवर्षका शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँ जन पुरातत्त्वक "अवशेष न पाये जाते हों। जहाँ आज जनोका निवास नहीं है वहां भी जैन कलाके सुन्दर नमूने पाये जाते है।
इसीसे प्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुत रविशकर रावलका कहना ई-भारतीय कलाका अभ्यासी जैनधर्मकी जरा भी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे जैनधर्म कलाका महान् आश्रयदाता, उद्धारक और वसंरक्षक प्रतीत होता है। र स्व० के०पी० जायसवालने जैनधर्मसे सम्बद्ध वास्तुकलाके विषयमे
एक नामक बात कही है। जैन और बौद्ध मन्दिरोपर अप्सराको आदि, की मूर्तिको लेकर उन्होने लिखा है-'अब प्रश्न यह है कि बौद्धो और
नोको ये अप्सराएँ कहां से मिली x x x मेरा उत्तर यह है कि "उन्होने ये सब चीजें सनातनी हिन्दू (वैदिक) इमारतोसे से ली है।
१-अन्धकार युगीन भारत, पृ० ९५-९६ ।